शाहरुख़ खान की महत्वकांक्षी फ़िल्म रा.वन भले ही कथित रूप से हिट हो गयी है पर अगर बॉलीवुड का बादशाह अपने चमचे-चपाटियों से अलग हो कर एकांत में कुछ देर चिंतन करे तो उसे अपने कथित होलीवुडीय तमाशे में चीत्कार करते कमजोर कहानी और निर्देशन पर अफ़सोस होगा.
Pankaj Devda
शाहरुख़ ने भले ही बच्चों को टार्गेट रख कर फ़िल्म बनाने का दंभ भरा हो पर एक सीन में बच्चे के मुह से 'कंडोम-कंडोम' बुलवाना कोन-सा मनोरंजन है ये वो ही जाने.
शाहरुख़ हर अवार्ड फंक्शन में आपको दिख जाएंगे. जैसे गाँव में मंदिर के ओटले पर पल्ली बिछाकर, चार लोग मिल कर ताश के पत्ते फेटने का आयोजन कर लेते है वैसे ही आजकल हर चार दिन में एक छिटपुटिये अवार्ड फंक्शन का आयोजन होता रहता है. ऐसे फंक्शनों में वो उतने ही कॉमन मिलते है जितने सब्जी के ठेले पर आलू. वे अपने बाजारीकरण का कोई मौका नहीं चूकते.
हकीकत में शाहरुख़ खान अब वो 20 साल पुराना 'राजू' नहीं रहे जो दिल्ली से मुंबई 'जेंटलमेन’ बनने आया था. अब वो बाजार का ब्रांड बन गए है, उसका भगवान बन गए है. वे टूथपेस्ट से लेकर कार तक सब बेचते है. अब एक्टिंग उनकी इतनी पर्सनल वस्तु नहीं रह गई है, वे इसका प्रोफेशनल बनकर उपभोग कर रहे है - अपने कथित 'किंग' डम को बचाने के लिए.
शाहरुख़ खान ने अपनी प्रतिभा को कुछ चमचा छाप डायरेक्टरों तक सीमित रख दिया है. एक बार फिर उन्हें अपनी सबसे सुन्दर फिल्म 'चक दे इंडिया' को देखना चाहिए. देखना चाहिए की जब शाहरुख़ अपना 'शाहरुखत्व' छोड़ते है तो कितने सुन्दर लगते है.
(The views expressed here are those of the author and do not necessarily reflect those of the Dakhalandazi or Bangalured.)