अंक: जुलाई-सितम्बर 2011, स्वरूप: त्रैमासिक, संपादक: संज्ञा उपाध्याय, पृष्ठ:98, मूल्य: 25रू(वार्षिक:100रू.), ईमेल: kathanpatrika@hotmail.com ,वेबसाईट: उपलब्ध नहीं, फोन/मोबाईल: 011.25268341, सम्पर्क: 107, साक्षरा अपार्टमेंट्स, ए-3, पश्चिम विहार, नई दिल्ली 110063

Akhilesh Shukla
Writer and Critic
पत्रिका कथन का वर्तमान अंक साहित्य के भौगोलिक स्वरूप से जुड़ी हुई चिंताओं को सामने लाता है। इस अंक की लगभग प्रत्येक रचना बाजारवाद और भारत में अमरीका की नकल से उपजे कुप्रभावों पर अपना मत व्यक्त करती प्रतीत होती है।
ख्यात साहित्यकार चंद्रबलि सिंह पर कथाकार व कथन के पूर्व संपादक रमेश उपाध्याय का संस्मरण लेख ‘‘याद रहेगी वह लाल मुस्कान’’ विचारधारा में विचारों की प्रमुखता स्पष्ट करता है। अंक की कहानियां शाप मुक्ति(कमलकांत त्रिपाठी), अनिकेत(जीवन सिंह ठाकुर) एवं हमारा बचपन(रजनीकांत शर्मा) भारतीय ग्रामीण परिवेश व दूर दराज के कस्बों-गांवों की जीवन शैली को अपने केन्द्र में रखकर पाठकों के सामने लाती है। ज्ञानेन्द्रपति, विजेन्द्र, रामदरश मिश्र, यश मालवीय, नीलोत्पल तथा हरेप्रकाश उपाध्याय जैसे नाम हिंदी कविता में नए नहीं है। हर तिनके की उजास, हम खड़े हैं कटे पेड़ के नीचे, लौट पड़ें, तथा अधूरे प्रेम का अंधेरा जैसी कविताओं की अंतर्रात्मा व भाव विशेष रूप से आकर्षित करता है।
ग्रैहम स्विफ्ट की अंग्रेजी कहानी का अनुवाद जितेन्द्र भाटिया ने बहुत ही कुशलता से किया है। इसकी वजह से ही इस कहानी को पढ़ने में मूल कहानी का सा आनंद प्राप्त होता है। प्रसिद्ध कवि हरिओम राजौरिया की कविताओं में लिखना, हार गए, खाते पीते, कहां जाएं में (मंडलोई जी के अनुसार) भाषा की सादगी व वाक्य रचना का पेटर्न प्रभावशाली है। ख्यात कथाकार एवं कथन के पूर्व संपादक रमेश उपाध्याय की कहानी त्रासदी माय फुट में अजय तिवारी ने ‘‘अमरीका का भारत के प्रति दृष्टिकोण’’ केन्द्र में रखकर विचार किया है। ख्यात वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ वरदराजन से पत्रिका की संपादक संज्ञा उपाध्याय की बातचीत वर्तमान खोजी पत्रकारिता व उसके परिणामों पर समसामयिक दृष्टिकोण है।
संज्ञा उपाध्याय द्वारा पारदर्शिता से संबंधित प्रश्न के उत्तर में सिद्धार्थ वरदराजन ने कहा है, ‘‘कुछ बातों को छोड़ दें भारत का सूचना कानून एक संतु लित कानून है। लेकिन इसके बारे में सरकार की या सरकारी इरादों की नियत फेरबदल करके इसे निष्प्रभावी बनाने की कोशिश में है। एक सामान्य पाठक के लिए इस प्रश्न के उत्तर में यह समझना कठिन हो जाता है कि जब सूचना का अधिकार संतुलित कानून है तो फिर आखिर क्यों वरदराजन उसमें खामियों को पुरजोर तरीके से सामने ला रहे हैं? उन्हें इस प्रश्न का उत्तर अधिक विस्तार से देते हुए अपनी बात स्पष्ट करना चाहिए थी। इस आधे अधूरे उत्तर से कथन का पाठक शायद ही संतुष्ट हो सके? मुकुल शर्मा, संतोष चौबे ने साहित्येत्तर विषयों पर लिखे लेख किसी नए विचार अथवा दृष्टिकोण को सामने नहीं लाते हैं। लेकिन फिर भी इनमें सरसता के कारण पाठक के लिए ग्राहय हैं। जवरीमल्ल पारख, उत्पल कुमार के स्तंभ की सामग्री हमेशा की तरह रूचिकर है। अंक की अन्य पाठ्य सामग्री जानकारीपरक तथा ज्ञानवर्धक है।

Join hands with Dakhalandazi
Message to Kapil Sibal
Save Your Voice: अपनी आवाज बचाओ
13 May: लंगड़ी यात्रा
Ban on the cartoons
Saraswati Siksha Samiti