सूखे चुम्बन और दो कश

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  • Saturday, October 29, 2011
  • जब हम सूखे हुए पेड़ों को देखते थे तो उन्हें बाहों में भरकर चूमते थे क्योंकि वो स्वप्न में हमें स्वर्ग की अप्सराएँ लगती थीं. हम उनके पैरों में पगड़ियाँ रखकर सुख की भीख माँगते थे.

    हम उस मनहूस वक़्त में रहते थे,जहाँ सपने नहीं देखे जा सकते थे क्योंकि ऐसा कहा जाता है कि सपने देखने के लिए आँखें बंद करना पड़ती है और हम चाह कर भी अपनी आँखें बंद नहीं कर सकते थे क्योंकि हमारी पलके उनसे निकलने वाले काले आंसुओं में बह गयी थी. हर बीतते हुए पल के साथ यथार्थ हमारी छाती में खंजर बनकर गढ़ता जाता था. उससे बचने के लिए हम मीठे सपने देखना चाहते थे और इस तरह हम खुली आँख ही सपना देखने लग गए.

    जब हम खेतों में उगी हुई सुखी जमीन पर चलते थे तो हमारी एडियों की दरारों में जमीने धँस जाती थीं. चूँकि हमे खुली आँख ही सपने देखने की आदत पढ़ गयी थी इसलिए हमें लगता था कि हम स्वर्ग में मखमलों पर चल रहे हैं. मखमल जो हमें इतने मुलायम लगते थे की हम उन्ही पर लेट जाना चाहते थे. क्योंकि इतनी कोमलता हमारी बीवियों की सुखी हुई चमड़ियों में नहीं बची थी. हम हमारी बीवियों से प्यार करना चाहते थे पर उनके होंठ पत्तों की तरह सुख गए थे. ऐसे पत्तें जिनमे तंबाकु भर दिए जाने के बाद हम उनसे कम से कम दो कश खींच सकते थे जो दो चुम्बन की तरह ही सुखद होते और वो भी अपनी अश्लीलता खोये बगैर.

    जब हम सूखे हुए पेड़ों को देखते थे तो उन्हें बाहों में भरकर चूमते थे क्योंकि वो स्वप्न में हमें स्वर्ग की अप्सराएँ लगती थीं. हम उनके पैरों में पगड़ियाँ रखकर सुख की भीख माँगते थे.

    हम रोते हुए पत्थरों पर नंगे होकर कूद जाते थे क्योंकि हमें स्वप्न में लगता था की यहाँ अब भी नदी बह रही होगी पर अफ़सोस कि हमारी चमड़ियों के टुकड़े हमारे शरीरों से टूट कर पत्थरों पर चिपक जाते थे और हम अपनी आँखें बंद कर लेते थे. हमारे गाल शर्म के मारे लाल हो जाते थे क्योंकी हमें लगता था की हम अब नंगे हो गए हैं.

    ठण्ड से बचने के लिए हम अपना सर मिट्टी के चूल्हों में धँसा लेते थे तो वहां पड़ी राख में हमें अब भी गर्माहट का अनुभव होता और दो चुटकी नमक (आटे में) डालकर बनायीं गयी गर्म रोटियों की खुशबू का भी.

    हम सब उस राख को खाने के लिए लड़ते थे लड़ना अब हमें प्यार करने जितना ही अच्छा लगने लग गया था. किसीको जान से मार देना हमें सच्चे प्यार करने जितना ही सुखद दिखता था. हमारे बच्चे हमारी बगलों में छुपकर बैठे रहते थे. वो हमें प्यार करना चाहते थे और हम उन्हें खा जाना. हम सब एक हसीन मौत के साथ सो जाना चाहते थे पर हमें श्राप लगा था.

    दुःख हमें इतना तो मीठा लगने लग गया था की सुबह- शाम हम उसमे उंगलियाँ डुबों कर डबल रोटी की तरह खा लेते थे.
    उस अभिशाप से पहले हम खुश थे, हम हमारी बीवियों के पेरों में मेहँदी लगाते थे, उन्हें साड़ियाँ पहनाते थे, उनके माथे पर चुम्बन और बिंदियाँ चिपकाते थे. हम अपने बच्चों को चड्डीयाँ पहनाते थे और चूँ-चूँ कर बजने वाले जूते भी. हम उन्हें मेलों में रिमोट वाली कार दिलाते थे. बगीचों में झूला झुलाते थे. सब कुछ कितना सुखद था उस अमरता के अभिशाप से पहले.

    Photo source: www.deviantart.com





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