Jagjit Singh: कुछ खट्टी कुछ मीठी यादें

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  • Monday, October 10, 2011
  • जगजीत सिंह (8 फरवरी 1941 - 10 अक्टूबर, 2011) एक बहुत लोकप्रिय गज़ल गायक थे। उनका संगीत काफ़ी मधुर है, और उनकी आवाज़ संगीत के साथ खूबसूरती से विलय होती है। खालिस उर्दू जानने वालों की मिल्कियत समझी जाने वाली, नवाबों-रक्कासाओं की दुनिया में झनकती और शायरों की महफ़िलों में वाह-वाह की दाद पर इतराती ग़ज़लों को आम आदमी तक पहुंचाने का श्रेय अगर किसी को पहले पहल दिया जाना हो तो जगजीत सिंह का ही नाम ज़ुबां पर आता है। उनकी ग़ज़लों ने सिर्फ़ उर्दू के कम जानकारों के बीच शेरो-शायरी की समझ में इज़ाफ़ा किया बल्कि ग़ालिब, मीर, मजाज़, जोश और फ़िराक़ जैसे शायरों से भी उनका परिचय कराया।


    आरंभिक दिन

    जगजीत जी का जन्म 8 फरवरी 1941 को राजस्थान के गंगानगर में हुआ था। पिता सरदार अमर सिंह धमानी भारत सरकार के कर्मचारी थे। जगजीत जी का परिवार मूलतः पंजाब के रोपड़ ज़िले के दल्ला गांव का रहने वाला है। मां बच्चन कौर पंजाब के ही समरल्ला के उट्टालन गांव की रहने वाली थीं। जगजीत का बचपन का नाम जीत था। करोड़ों सुनने वालों के चलते सिंह साहब कुछ ही दशकों में जग को जीतने वाले जगजीत बन गए। शुरूआती शिक्षा गंगानगर के खालसा स्कूल में हुई और बाद पढ़ने के लिए जालंधर आ गए। डीएवी कॉलेज से स्नातक की डिग्री ली और इसके बाद कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय से इतिहास में पोस्ट ग्रेजुएशन भी किया.

    बहुतों की तरह जगजीत जी का पहला प्यार भी परवान नहीं चढ़ सका। अपने उन दिनों की याद करते हुए वे कहते हैं, ”एक लड़की को चाहा था। जालंधर में पढ़ाई के दौरान साइकिल पर ही आना-जाना होता था। लड़की के घर के सामने साइकिल की चैन टूटने या हवा निकालने का बहाना कर बैठ जाते और उसे देखा करते थे। बाद मे यही सिलसिला बाइक के साथ जारी रहा। पढ़ाई में दिलचस्पी नहीं थी। कुछ क्लास मे तो दो-दो साल गुज़ारे.” जालंधर में ही डीएवी कॉलेज के दिनों गर्ल्स कॉलेज के आसपास बहुत फटकते थे। एक बार अपनी चचेरी बहन की शादी में जमी महिला मंडली की बैठक मे जाकर गीत गाने लगे थे। पूछे जाने पर कहते हैं कि सिंगर नहीं होते तो धोबी होते। पिता के इजाज़त के बग़ैर फ़िल्में देखना और टाकीज में गेट कीपर को घूंस देकर हॉल में घुसना आदत थी।

    संगीत का सफ़र

    बचपन मे अपने पिता से संगीत विरासत में मिला। गंगानगर मे ही पंडित छगन लाल शर्मा के सानिध्य में दो साल तक शास्त्रीय संगीत सीखने की शुरूआत की। आगे जाकर सैनिया घराने के उस्ताद जमाल ख़ान साहब से ख्याल, ठुमरी और ध्रुपद की बारीकियां सीखीं। पिता की ख़्वाहिश थी कि उनका बेटा भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) में जाए लेकिन जगजीत पर गायक बनने की धुन सवार थी। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान संगीत मे उनकी दिलचस्पी देखकर कुलपति प्रोफ़ेसर सूरजभान ने जगजीत सिंह जी को काफ़ी उत्साहित किया। उनके ही कहने पर वे १९६५ में मुंबई आ गए। यहां से संघर्ष का दौर शुरू हुआ। वे पेइंग गेस्ट के तौर पर रहा करते थे और विज्ञापनों के लिए जिंगल्स गाकर या शादी-समारोह वगैरह में गाकर रोज़ी रोटी का जुगाड़ करते रहे। १९६७ में जगजीत जी की मुलाक़ात चित्रा जी से हुई। दो साल बाद दोनों १९६९ में परिणय सूत्र में बंध गए।

    गुज़रा ज़माना

    जगजीत सिंह फ़िल्मी दुनिया में प्लेबैक सिंगिंग (पार्श्वगायन) का सपना लेकर आए थे। तब पेट पालने के लिए कॉलेज और ऊंचे लोगों की पार्टियों में अपनी पेशकश दिया करते थे। उन दिनों तलत महमूद, मोहम्मद रफ़ी साहब जैसों के गीत लोगों की पसंद हुआ करते थे। रफ़ी-किशोर-मन्नाडे जैसे महारथियों के दौर में पार्श्व गायन का मौक़ा मिलना बहुत दूर था। जगजीत जी याद करते हैं, ”संघर्ष के दिनों में कॉलेज के लड़कों को ख़ुश करने के लिए मुझे तरह-तरह के गाने गाने पड़ते थे क्योंकि शास्त्रीय गानों पर लड़के हूट कर देते थे.” तब की मशहूर म्यूज़िक कंपनी एच एम वी (हिज़ मास्टर्स वॉयस) को लाइट क्लासिकल ट्रेंड पर टिके संगीत की दरकार थी। जगजीत जी ने वही किया और पहला एलबम ‘द अनफ़ॉरगेटेबल्स (१९७६)’ हिट रहा। जगजीत जी उन दिनों को याद करते हुए कहते हैं, ”उन दिनों किसी सिंगर को एल पी (लॉग प्ले डिस्क) मिलना बहुत फ़ख्र की बात हुआ करती थी.” बहुत कम लोग जानते हैं कि सरदार जगजीत सिंह धीमान इसी एलबम के रिलीज़ के पहले जगजीत सिंह बन चुके थे। बाल कटाकर असरदार जगजीत सिंह बनने की राह पकड़ चुके थे। जगजीत ने इस एलबम की कामयाबी के बाद मुंबई में पहला फ़्लैट ख़रीदा था।
    आम आदमी की ग़ज़ल

    जगजीत सिंह ने ग़ज़लों को जब फ़िल्मी गानों की तरह गाना शुरू किया तो आम आदमी ने ग़ज़ल में दिलचस्पी दिखानी शुरू की लेकिन ग़ज़ल के जानकारों की भौहें टेढ़ी हो गई। ख़ासकर ग़ज़ल की दुनिया में जो मयार बेग़म अख़्तर, कुन्दनलाल सहगल, तलत महमूद, मेहदी हसन जैसों का था.। उससे हटकर जगजीत सिंह की शैली शुद्धतावादियों को रास नहीं आई। दरअसल यह वह दौर था जब आम आदमी ने जगजीत सिंह, पंकज उधास सरीखे गायकों को सुनकर ही ग़ज़ल में दिल लगाना शुरू किया था। दूसरी तरफ़ परंपरागत गायकी के शौकीनों को शास्त्रीयता से हटकर नए गायकों के ये प्रयोग चुभ रहे थे। आरोप लगाया गया कि जगजीत सिंह ने ग़ज़ल की प्योरटी और मूड के साथ छेड़खानी की। लेकिन जगजीत सिंह अपनी सफ़ाई में हमेशा कहते रहे हैं कि उन्होंने प्रस्तुति में थोड़े बदलाव ज़रूर किए हैं लेकिन लफ़्ज़ों से छेड़छाड़ बहुत कम किया है। बेशतर मौक़ों पर ग़ज़ल के कुछ भारी-भरकम शेरों को हटाकर इसे छह से सात मिनट तक समेट लिया और संगीत में डबल बास, गिटार, पिआनो का चलन शुरू किया..यह भी ध्यान देना चाहिए कि आधुनिक और पाश्चात्य वाद्ययंत्रों के इस्तेमाल में सारंगी, तबला जैसे परंपरागत साज पीछे नहीं छूटे।

    प्रयोगों का सिलसिला यहीं नहीं रुका बल्कि तबले के साथ ऑक्टोपेड, सारंगी की जगह वायलिन और हारमोनियम की जगह कीबोर्ड ने भी ली। कहकशां और फ़ेस टू फ़ेस संग्रहों में जगजीत जी ने अनोखा प्रयोग किया। दोनों एलबम की कुछ ग़ज़लों में कोरस का इस्तेमाल हुआ। जलाल आग़ा निर्देशित टीवी सीरियल कहकशां के इस एलबम में मजाज़ लखनवी की ‘आवारा’ नज़्म ‘ऐ ग़मे दिल क्या करूं ऐ वहशते दिल क्या करूं’ और फ़ेस टू फ़ेस में ‘दैरो-हरम में रहने वालों मयख़ारों में फूट न डालो’ बेहतरीन प्रस्तुति थीं। जगजीत ही पहले ग़ज़ल गुलुकार थे जिन्होंने चित्रा जी के साथ लंदन में पहली बार डिजीटल रिकॉर्डिंग करते हुए ‘बियॉन्ड टाइम अलबम’ जारी किया।

    इतना ही नहीं, जगजीत जी ने क्लासिकी शायरी के अलावा साधारण शब्दों में ढली आम-आदमी की जिंदगी को भी सुर दिए। ‘अब मैं राशन की दुकानों पर नज़र आता हूं’, ‘मैं रोया परदेस में’, ‘मां सुनाओ मुझे वो कहानी’ जैसी रचनाओं ने ग़ज़ल न सुनने वालों को भी अपनी ओर खींचा।

    शायर बशीर बद्र जगजीत सिंह जी के पसंदीदा शायरों में हैं। निदा फ़ाज़ली के दोहों का एलबम ‘इनसाइट’ कर चुके हैं। जावेद अख़्तर के साथ ‘सिलसिले’ ज़बर्दस्त कामयाब रहा। लता मंगेशकर जी के साथ ‘सजदा’, गुलज़ार के साथ ‘मरासिम’ और ‘कोई बात चले’, कहकशां, साउंड अफ़ेयर, डिफ़रेंट स्ट्रोक्स और मिर्ज़ा ग़ालिब अहम हैं। जगजीत जी ने राजेश रेड्डी, कैफ़ भोपाली, शाहिद कबीर जैसे शायरों के साथ भी काम किया है।
    फ़िल्मी सफ़रनामा

    १९८१ में रमन कुमार निर्देशित ‘प्रेमगीत’ और १९८२ में महेश भट्ट निर्देशित ‘अर्थ’ को भला कौन भूल सकता है। ‘अर्थ’ में जगजीत जी ने ही संगीत दिया था। फ़िल्म का हर गाना लोगों की ज़ुबान पर चढ़ गया था। इसके बाद फ़िल्मों में हिट संगीत देने के सारे प्रयास बुरी तरह नाकामयाब रहे। कुछ साल पहले डिंपल कापड़िया और विनोद खन्ना अभिनीत फ़िल्म लीला का संगीत औसत दर्ज़े का रहा। १९९४ में ख़ुदाई, १९८९ में बिल्लू बादशाह, १९८९ में क़ानून की आवाज़, १९८७ में राही, १९८६ में ज्वाला, १९८६ में लौंग दा लश्कारा, १९८४ में रावण और १९८२ में सितम के गीत चले और न ही फ़िल्में। ये सारी फ़िल्में उन दिनों औसत से कम दर्ज़े की फ़िल्में मानी गईं। ज़ाहिर है कि जगजीत सिंह ने बतौर कम्पोज़र बहुत पापड़ बेले लेकिन वे अच्छे फ़िल्मी गाने रचने में असफल ही रहे। इसके उलट पार्श्वगायक जगजीत जी सुनने वालों को सदा जमते रहे हैं। उनकी सहराना आवाज़ दिल की गहराइयों में ऐसे उतरती रही मानो गाने और सुनने वाले दोनों के दिल एक हो गए हों। कुछ हिट फ़िल्मी गीत ये रहे-

    ‘प्रेमगीत’ का ‘होठों से छू लो तुम मेरा गीत अमर कर दो’ ‘खलनायक’ का ‘ओ मां तुझे सलाम’ ‘दुश्मन’ का ‘चिट्ठी ना कोई संदेश’ ‘जॉगर्स पार्क’ का ‘बड़ी नाज़ुक है ये मंज़िल’ ‘साथ-साथ’ का ‘ये तेरा घर, ये मेरा घर’ और ‘प्यार मुझसे जो किया तुमने’ ‘सरफ़रोश’ का ‘होशवालों को ख़बर क्या बेख़ुदी क्या चीज़ है’ ‘ट्रैफ़िक सिगनल’ का ‘हाथ छुटे भी तो रिश्ते नहीं छूटा करते’ (फ़िल्मी वर्ज़न) ‘तुम बिन’ का ‘कोई फ़रयाद तेरे दिल में दबी हो जैसे’ ‘वीर ज़ारा’ का ‘तुम पास आ रहे हो’ (लता जी के साथ) ‘तरक़ीब’ का ‘मेरी आंखों ने चुना है तुझको दुनिया देखकर’ (अलका याज्ञनिक के साथ)

    विवादों में रहे जगजीत

    बहुत कम लोगों को पता होगा कि अपने संघर्ष के दिनों में जगजीत सिंह इस कदर टूट चुके थे कि उन्होंने स्थापित प्लेबैक सिंगरों पर तीखी टिप्पणी तक कर दी थी। हालांकि आज वे इसे अपनी भूल स्वीकारते हैं। स्टेट्टमैन लिखता है कि, किशोर दा ने जगजीत सिंह के उस बयान पर कमेंट किया था – ”how dare these so-called ghazal singers criticize an icon that Manna Dey, Mukesh and I dare not criticize. Rafi was unique.” ज़ाहिर है जगजीत जी ने महान पार्श्व गायक मोहम्मद रफ़ी साहब पर जो कहा वो उचित नहीं होगा। ये भी देखने वाली बात है कि जगजीत जी ने अपनी पसंद के जिन फ़िल्मी गानों का कवर वर्सन एलबम क्लोज़ टू माइ हार्ट में किया था.। उसमें रफ़ी साहब का कोई गाना नहीं था। ख़ैर, इसके बाद उनकी दिलचस्पी राजनीति में भी बढ़ी और भारत-पाक करगिल लड़ाई के दौरान उन्होंने पाकिस्तान से आ रही गायकों की भीड़ पर एतराज किया। तब जगजीत सिंह जी का कहना था कि उनके आने पर बैन लगा देना चाहिए। दरअसल, जगजीत जी को पाकिस्तान ने वीज़ा देने से इंकार कर दिया था.। लेकिन जब पाकिस्तान से बुलावा आया तब जगजीत सिंह जी की नाराज़गी दूर हो गई। ये इस शख़्स की भलमनसाहत थी कि जगजीत ने ग़ज़लों के शहंशाह मेहदी हसन के इलाज के लिए तीन लाख रुपए की मदद की.। उन दिनों मेहदी हसन साहब को पाकिस्तान की सरकार तक ने नज़रअंदाज़ कर रखा था।

    घुड़दौड़ का शौक- ग़ज़ल गायकी जैसे सौम्य शिष्ट पेशे में मशहूर जगजीत जी का दूसरा शगल रेसकोर्स में घुड़दौड़ है। कन्सर्ट के बाद कहीं सुकून मिलता है तो वो है मुंबई महालक्ष्मी इलाक़े का रेसकोर्स। १९६५ में मुंबई मे जहां डेरा डाला था उस शेर ए पंजाब हॉटल में कुछ ऐसे लोग थे जिन्हें घोड़ा दौड़ाने का शौक था। संगत ने असर दिखाया और इन्हें ऐसा चस्का लगा कि आज तक नहीं छूटा है। (स्रोत-आउटलुक) इसी तरह लॉस वेगास के केसिनो भी उन्हें ख़ूब भाते हैं।

    सम्मान और पुरस्कार

    जगजीत सिंह को सन २००३ में भारत सरकार द्वारा कला के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया था। ये महाराष्ट्र राज्य से हैं।
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