कभी यूं होता है के मैं वो होता हूँ ...
कभी लड़ता हूँ.. कभी झगड़ता हूँ ...
मैं खुद से रूठ के उसे संजोता हूँ ...
वो मिलना भी अजीब था.. कश्तियाँ थीं हमारे पास... पर हम डूबने चले थे साथ...
वो डूब रही है ... फिर मैं क्यूँ उभरता हूँ...
कभी बेहद्द तो कभी हद्दों में सिमटता हूँ...
मैं खुद बेफिक्री में फीक्र्र करता हूँ...
वो बारिश भी अजीब थी... एक छत थी छाओं के लिये... पर हम भींगने चले थे साथ...
वो भीग रही है फिर मैं क्यूँ ठेहेरता हूँ ...
कभी रूंध जाती है आवाज़... तो कभी मन ही मन हँसता हूँ...
मैं खुद की परछाइयों में उसे टटोलता हूँ...
वो नजदीकियां भी अजीब थीं.. दूरियां थीं हमारे दरमियां पर हम मेले घूमने चले थे साथ ..
वो गुम हो रही है फिर मैं क्यूँ नहीं उसे ढूँढता हूँ...
कभी खुद से खफा तो कभी खुद में रोता हूँ...
वो लव्ज़ भी अजीब थे.. पूरा हो चूका था किस्सा.. पर हम एक गीत लिखने चले थे साथ ..
वो गुनगुना रही है फिर मैं क्यूँ ठहेरता हूँ..
कभी बेखबर तो कभी बेअसर सा होता हूँ