चिड़िया

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  • Friday, July 22, 2011

  • ये नन्ही सी चिड़िया,
    मेरे बचपन की साथी,
    मुझसे बातें करती,
    मेरे संग थी गातीं .
    इनका साथ मुझे खूब भाता,
    पिछले जन्म का कुछ तो था नाता .
    दिन भर इन्हें दाने थी चुगाती,
    धूप में रहने पर माँ थी डांटती .
    जैसे तैसे रात होती,
    तो सपनों में मैं चिड़िया होती.
    सुनहरे से पंखों वाली चिड़िया,
    सुनहरी थी जिसकी दुनिया.
    ज़ोर से दौड़ लगाती,
    और दूर गगन में उड़ जाती.
    कभी तितली संग इठलाती,
    तो कभी भौरों संग गुनगुनाती.
    सुबह जागती तो बड़ी खुश होती,
    सपने वाली बातें माँ से कहती.
    माँ पहले तो खूब हंसती,
    फिर मुझसे यही कहती.
    उड़ने अकेले मत जाया कर,
    शैतान भाई-बहनों को भी संग ले जाया कर.
    मैं जैसे-जैसे बड़ी होती गई,
    वैसे-वैसे चिड़ियाँ कम होती गईं.
    दाने अब भी डालती हूँ,
    पर उन्हें वहीँ पड़ा पाती हूँ.
    अब चिड़ियाँ इन्हें चुगने आती है ,
    और माँ भी बस यादों में ही आती है.
    एक दिन अचानक...
    एक चिड़िया मेरे घर में नज़र आई,
    ख़ुशी से मेरी आँखें छलक आई.
    मैंने पूछा इतने दिनों तक कहाँ थी,
    मुझसे मिलने क्यों नहीं आती थी.
    वह बोली.....!
    मैं भी तुम्हे खोजती थी,
    तुमसे मिलना चाहती थी.
    उड़कर इधर उधर घूमती थी,
    हर बार भटक जाती थी.
    इंसानों ने जो ऊँचे-ऊँचे टॉवर लगाये हैं,
    ये ही हमारे लिए मुसीबत लाये हैं.
    हमें जाना कहीं और होता है,
    और चले कहीं जाते हैं.
    ये हमें बहुत सताते हैं,
    हमें दिशा भ्रमित कर जाते हैं.
    इतना कहकर वह फुर्र से उड़ गई,
    और मुझे सोचने के लिए छोड़ गई.
    मैं तो अभी भी चिड़िया ही बनना चाहती हूँ,
    ऊँचे गगन में जी भरके उड़ना चाहती हूँ.
    अब मैं इस सपने का क्या करूँ,
    अगले जनम में चिड़िया बनूँ या बनूँ ...
    ............. संध्या शर्मा
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