खून से लिखी जाती है क्रांति, इंटरनेट से नहीं

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  • Monday, April 11, 2011

  • अन्ना हजारे के आंदोलन को जिस तरह लोगों का सपोर्ट मिला, उसकी कल्पना भी शायद किसी ने नहीं की होगी। इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि जिस तरह आम जनता इस आंदोलन से जुड़ी और इसे कामयाब बनाया, उसमें सोशल नेटवर्किंग साइट्स का बहुत बड़ा योगदान रहा है।
    मैंने देखा कि लोगों ने अपने-अपने फेसबुक प्रोफाइल पर अन्ना हजारे की मुहर लगाई हुई थी। इंटरनेट के जरिए अन्ना का बायोडेटा सर्कुलेट हुआ। बहुत सारे लोग इससे प्रेरित हुए और आंदोलन का हिस्सा बने। सवाल यह है कि क्या बड़ी क्रांति के लिए इस तरह का वर्चुअल सपोर्ट काफी है?


    मेरे हिसाब से बिल्कुल नहीं। अब तक का इतिहास उठाकर देख लें, तो पाएंगे कि बड़ी क्रांति वहीं हुई है, जहां लोग खुद सड़कों पर उतरे हैं। पहले आंदोलन का मतलब होता था अपना खून बहाना। अब एयरकंडिशंड कमरे में बैठ सिर्फ माउस पर अपनी उंगली हिलाकर 'आई अग्री' या 'लाइक' पर क्लिक कर देने मात्र से क्या आप अपने आपको आंदोलन का हिस्सा मान सकते हैं? डिजिटल वर्ल्ड में जी रहे लोग दरअसल डिजिटल क्रांति ही कर रहे हैं। इतिहास में जो क्रांतियां हुई हैं, वे खून से लिखी गईं। उसमें लोगों का खून-पसीना बहा। क्रांति में झंडे, बिल्ले और नारों का महत्व है। इसे हम क्रांति की ब्रैंडिंग कह सकते हैं। फिर भी इनका महत्व कम नहीं आंका जा सकता। झंडे आपको अपने हाथों से ही फहराने होंगे और नारे आपको अपने मुंह से ही लगाने होंगे। इनका विकल्प इंटरनेट नहीं हो सकता। आज की क्रांति ऐसी नहीं है और यह सब सांकेतिक आंदोलन में तब्दील हो गया है। कहीं ऐसा तो नहीं कि यह वर्चुअल वर्ल्ड हमारे आक्रोश को ठंडा करने का जरिया बन गया है? इस सवाल पर हमें विचार करने की जरूरत है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर ही अपना विरोध जता देना किसी छद्म आंदोलन का हिस्सा लगता है। ऐसा करके जो सुख मिलता है, वह भी छद्म सुख ही है। सोशल साइट पर एक कमेंट डालकर आप अपनी जिम्मेदारी से बच सकते हैं, खुद को काम करने से बचा सकते हैं।


    मेरे ही एक जानने वाले के फेसबुक प्रोफाइल पर अन्ना हजारे की मुहर लगी थी। मैंने उसे फोन किया और पूछा कि वह अन्ना हजारे के बारे में कितना जानता है? मगर उसका जवाब निराशाजनक ही रहा। भले ही वह अन्ना के बारे में पूरी तरह नहीं जानता था लेकिन उसके फेसबुक पर उनकी मुहर थी। इस बात से यह साफ अंदाजा लगाया जा सकता है कि ऐसे लोगों का आंदोलन में कितना इनवॉल्वमेंट है। अब आंदोलन भी एक फैशन का रूप ले रहा है। सोशल साइट्स पर भी कुछ लोग तो सिर्फ इसलिए जुड़ते हैं कि देखिए, हम भी इसका हिस्सा हैं और हम भी सामाजिक सरोकार से जुड़े हैं। यहां सोचने वाली बात यह है कि खुद को बिना कष्ट दिए, एसी कमरों और आफिसों में बैठकर कैसे हम अपने आपको किसी आंदोलन का हिस्सा मान सकते हैं? यह सही है कि सोशल साइट्स लोगों को जोड़ने का बहुत बड़ा प्लैटफॉर्म हैं और भविष्य में रहेंगी भी, लेकिन ये साइट्स असली क्रांति करने का माद्दा कभी नहीं रख सकतीं। इसके लिए खुद इंसान को ही सड़कों पर उतरना होगा।


    इंटरनेट का रोल इतना ही है कि वह संदेश को फैलाए। उसे सूचना प्रसार का जरिया माना जा सकता है। यह कर्म का अंत नहीं हो सकता। अगर आपको भूख लगी है तो असल खाना ही खाना होगा। नेट पर खाने की थाली देखकर पेट नहीं भरा जा सकता। ठीक ऐसे ही नेट के जरिए आंदोलन का हिस्सा नहीं बना जा सकता। जब भी गांधी जी ने अनशन किया तो देश के बच्चे-बच्चे को पता था कि आज गांधी जी ने खाना नहीं खाया। तब तो ऐसी सोशल साइट्स नहीं हुआ करती थीं। फिर भी आंदोलन असरकारी होते थे। पिछले दिनों आई एक रिसर्च रिपोर्ट से यह साबित होता है कि किसी भी सोशल साइट पर बने रिश्ते वास्तविक रिश्तों से कमजोर होते हैं। मेरा मानना है कि फेसबुक पर 'क्लिक' करने की बजाय अगर सशरीर उस आंदोलन का हिस्सा बना जाता तो शायद भावना कुछ और ही होती। यही वजह है कि मुद्दों से गंभीरता से जुड़ने की जरूरत है, तभी असल क्रांति होगी.

    - प्रसून जोशी
    (courtesy: navbharat times)
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