तुम्हारी बाँहों में मछलियाँ क्यों नहीं हैं?

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  • Monday, April 4, 2011

  • मुझे इतवार की शाम की चार बजे वाली फ़िल्म भी बहुत याद आती है। मुझेलोकसभा में वाजपेयी का भाषण भी बहुत याद आता है। मुझे हिन्दी मेंछपने वाली सर्वोत्तम बहुत याद आती है


    मेरा मन है कि मैं उसे कहानी सुनाऊँ। मैं सबसे अच्छी कहानी सोचता हूँ और फिर कहीं रखकर भूल जाता हूँ। उसे भी मेरे बालों के साथ कम होती याददाश्त की आदत पड़ चुकी है। वह महज़ मुस्कुराती है।
    फिर उसका मन करता है कि वह मेरे दाएँ कंधे से बात करे। वह उसके कान में कुछ कहती है और दोनों हँस पड़ते हैं। उसके कंधों तक बादल हैं। मैं उसके कंधों से नीचे नहीं देख पाता।
    - सुप्रिया कहती है कि रोहित की बाँहों में मछलियाँ हैं। बाँहों में मछलियाँ कैसे होती हैं? बिना पानी के मरती नहीं?
    मैं मुस्कुरा देता हूँ। मुस्कुराने के आखिरी क्षण में मुझे कहानी याद आ जाती है। वह कहती है कि उसे चाय पीनी है। मैं चाय बनाना सीख लेता हूँ और बनाने लगता हूँ। चीनी ख़त्म हो जाती है और वह पीती है तो मुझे भी ऐसा लगता है कि चीनी ख़त्म नहीं हुई थी।
    - तुम्हारी बाँहों में मछलियाँ क्यों नहीं हैं?
    - मुझे तुम्हारे कंधों से नीचे देखना है।
    - कहानी कब सुनाओगे?
    - तुम्हें कैसे पता कि मुझे कहानी सुनानी है?
    - चाय में लिखा है।
    - अपनी पहली प्रेमिका की कहानी सुनाऊँ?
    - नहीं, दूसरी की।
    - मिट्टी के कंगूरों पर बैठे लड़के की कहानी सुनाऊँ?
    - नहीं, छोटी साइकिल चलाने वाली बच्ची की। और कंगूरे क्या होते हैं?
    - तुम सवाल बहुत पूछती हो।
    वह नाराज़ हो जाती है। उसे याद आता है कि उसे पाँच बजे से पहले बैंक में पहुँचना है। ऐसा याद आते ही बजे हुए पाँच लौटकर साढ़े चार हो जाते हैं। मुझे घड़ी पर बहुत गुस्सा आता है। मैं उसके जाते ही सबसे पहले घड़ी को तोड़ूंगा।
    मैं पूछता हूँ, “सुप्रिया और रोहित के बीच क्या चल रहा है?”
    - मुझे नहीं पता…
    मैं जानता हूँ कि उसे पता है। उसे लगता है कि बैंक बन्द हो गया है। वह नहीं जाती। मैं घड़ी को पुचकारता हूँ। फिर मैं उसे एक महल की कहानी सुनाने लगता हूँ। वह कहती है कि उसे क्रिकेट मैच की कहानी सुननी है। मैं कहता हूँ कि मुझे फ़िल्म देखनी है। वह पूछती है, “कौनसी?”
    मुझे नाम बताने में शर्म आती है। वह नाम बोलती है तो मैं हाँ भर देता हूँ। मेरे गाल लाल हो गए हैं।
    उसके बालों में शोर है, उसके चेहरे पर उदासी है, उसकी गर्दन पर तिल है, उसके कंधों तक बादल हैं।
    - कंगूरे क्या होते हैं?
    अबकी बार वह मेरे कंधों से पूछती है और उत्तर नहीं मिलता तो उनका चेहरा झिंझोड़ने लगती है।
    मैं पूछता हूँ – तुम्हें तैरना आता है?
    वह कहती है कि उसे डूबना आता है।
    मैं आखिर कह ही देता हूँ कि मुझे घर की याद आ रही है, उस छोटे से रेतीले कस्बे की याद आ रही है। मैं फिर से जन्म लेकर उसी घर में बड़ा होना चाहता हूँ। नहीं, बड़ा नहीं होना चाहता, उसी घर में बच्चा होकर रहना चाहता हूँ। मुझे इतवार की शाम की चार बजे वाली फ़िल्म भी बहुत याद आती है। मुझे लोकसभा में वाजपेयी का भाषण भी बहुत याद आता है। मुझे हिन्दी में छपने वाली सर्वोत्तम बहुत याद आती है, उसकी याद में रोने का मन भी करता है। उसमें छपी ब्रायन लारा की जीवनी बहुत याद आती है। गर्मियों की बिना बिजली की दोपहर और काली आँधी बहुत याद आती है। वे आँधियाँ भी याद आती हैं, जो मैंने नहीं देखी लेकिन जो सुनते थे कि आदमियों को भी उड़ा कर ले जाती थी। अंग्रेज़ी की किताब की एक पोस्टमास्टर वाली कहानी बहुत याद आती है, जिसका नाम भी नहीं याद कि ढूँढ़ सकूं। मुझे गाँव के स्कूल का पहली क्लास वाला एक दोस्त याद आता है, जिसका नाम भी याद नहीं और कस्बे के स्कूल का एक दोस्त याद आता है, जिसका नाम याद है, लेकिन गाँव नहीं याद। वह होस्टल में रहता था। उसने ‘ड्रैकुला’ देखकर उसकी कहानी मुझे सुनाई थी। उसकी शादी भी हो गई होगी…शायद बच्चे भी। वह अब भी वही हिन्दी अख़बार पढ़ता होगा, अब भी बोलते हुए आँखें तेजी से झिपझिपाता होगा। लड़कियों के होस्टल की छत पर रात में आने वाले भूतों की कहानियाँ भी याद आती हैं। दस दस रुपए की शर्त पर दो दिन तक खेले गए मैच याद आते हैं। शनिवार की शाम का ‘एक से बढ़कर एक’ याद आता है, सुनील शेट्टी का ‘क्या अदा क्या जलवे तेरे पारो’ याद आता है। शंभूदयाल सर बहुत याद आते हैं। उन्होंने मुझसे कहा था कि तुम क्रिएटिव हो और मैं उसका मतलब जाने बिना ही खुश हो गया था। एक रद्दीवाला बूढ़ा याद आता है, जो रोज़ आकर रद्दी माँगने लगता था और मना करने पर डाँटता भी था। कहीं मर खप गया होगा अब तो। एक लड़की याद आती है, जो याद आते आते लौट जाती है।
    वह कंगूरे भूल गई है और मेरे लिए डिस्प्रिन ले आई है। उसने बादल उतार दिए हैं। मैंने उन्हें संभालकर रख लिया है। बादलों से पानी लेकर मेरी बाँहों में मछलियाँ तैरने लगी हैं। हमने दीवार तोड़ दी है और उस पार के गाँव में चले गए हैं। उस पार मीठा अँधेरा है जो उसे कभी कभी तीखा लगता है। वह अपनी जुबान पर अँधेरे की हरी चरचरी मिर्च धर लेती है और जब उसे चबाती है तो हल्की हल्की सिसकारी भरती है। मैं उसे शक्कर कहता हूँ तो वह शक्कर होकर खिलखिलाने लगती है।
    कुछ देर बाद वह कहती है – मिट्टी के कंगूरों पर बैठे लड़के की कहानी सुनाओ।
    मैं कहता हूँ कि छोटी साइकिल चलाने वाली लड़की की सुनाऊँगा। वह पूछती है कि तुम्हें कौनसी कहानी सबसे ज़्यादा पसन्द है? मैं नहीं बताता।
    फिर पूछती है कि तुम्हें कौनसी कहानी सबसे बुरी लगती है? फिर वह कुछ पूछते पूछते भूल जाती है। फिर मैं कहता हूँ , “नीलाक्षी…….” और फिर कुछ नहीं कहता।

    ( Gaurav is an Electrical Engineering graduate from IIT, Roorkee. He lives and writes in Delhi.)
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