कुछ कह रहा है नेपोलियन

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  • Thursday, March 31, 2011
  •  नेट प्रेक्टिस के बाद जब मै स्टेडियम के बाहर आया तो लगा कि बाएँ पैर में थोड़ी सी इंजरी आ गयी है. शायद रन अप लेते समय पैर तिरछा हो गया होगा. शुक्र है कि चोट हल्की लगी, नहीं तो कल के मच में क्या होता. स्टैंड पर अभिषेक मेरा इंतज़ार कर रहा था. उसने आज आधे घंटे पहले ही प्रेक्टिस बंद कर दी थी. हमने अपनी साइकिलें उठाईं और घर की तरफ चल दिए. थोड़ी देर तक हम दोनों चुप रहे फिर अभिषेक ने ही खामोशी तोडी,

       

             "गुप्ता सर कह रहे थे कि अब आलराउंडर के लिए कोई स्कोप नहीं है...आज की क्रिकेट में केवल स्पेशलिस्ट की ज़रुरत है."
             मुझे लगा जैसे किसी ने मेरी दुखती रग पर हाथ रख दिया हो. एकदम बिखर पडा मै
    "बकवास करते हैं गुप्ता सर..! साफ़-साफ़ नहीं कहते कि बिना जुगाड़ और सेटिंग के कुछ नहीं हो सकता."
            "देखो यार एक तुम ही नहीं आल राउंडर नहीं हो यूपी में...डेढ़ सौ पड़े हैं तुम्हारे जैसे और वैसे भी केवल गुप्ता सर ही नहीं हैं सेलेक्टर्स में..."
              अभिषेक ने बड़े तीखे अंदाज़ में सफाई दी. लेकिन उसने मेरा गुस्सा और बढ़ा दिया.
             "लेकिन जो दुसरे सेलेक्टर्स हैं वो बहुत इमानदार हैं क्या..? दस गुना ज्यादा भ्रष्ट हैं गुप्ता से.. पांच साल से देख रहा हूँ सेलेक्सन कैसे होता है..ना किसी का रिकार्ड देखा जाता है और ना परफामेंस...सब कुछ डिपेंड करता है पैसे और अप्रोच पर. मुझे तो लगता है कि ये बेईमान कभी हमें यूपी से ही नहीं खेलने देंगे...नेशनल टीम की तो बात ही छोडो".
             अभिषेक ने तो फिर जैसा मोर्चा ही खोल दिया,
            "अच्छा तो आप इस भ्रम में भी हैं कि एक दिन टीम इंडिया में सेलेक्ट होंगे.... तो सर किस नंबर पर बैटिंग करेंगे ज़नाब...? थर्ड डाउन ठीक रहेगा. लेकिन वहा तो अभी द्रविड़ खेल रहा है. अब कैप्टन तो हटने से रहा. चलिए आप फोर्थ डाउन पर चले जाइएगा. और हाँ थोडा स्मार्टनेस से बोलियेगा... आई एम विकास दीक्षित, एज २४, लेफ्ट हैण्ड बैट्समैन, राईट आर्म मीडियम पेसर."
             अभिषेक के व्यंगबाण से मै एकदम तिलमिला गया,
            "क्यों इसमें मजाक वाली क्या बात है...? घर वालों की गलियां सुनता हूँ... मोहल्ले वालों की कमेंट्री झेलता हूँ...पापा के सामने कभी जूते तो कभी बैट खरीदने के लिए गिड़गिडाकर पैसे मांगने मांगता हूँ..."
             अभिषेक थोडा डाउन हुआ.
            "तो किसने कहा था तुमसे ये सब करने को....? तुम तो पढ़ाई में ठीक-ठाक थे ना. फिर तुम्हे क्रिकेट में पिलने की क्या ज़रुरत थी..? देखो गौरव को... कितना टैलेंटेड बैट्समैन था.. लेकिन उसने कब का क्लब छोड़ दिया...सुना है दिल्ली में किसी कालेज से एमबीए कर रहा है. थोड़े दिन में बीस-पच्चीस हज़ार का आदमी हो जायेगा. तुम भी कोई कोर्स कर लो... कब तक खेलते रहोगे...अपनी ज़िंदगी से."
             शायद अभिषेक सही कह रहा था फिर भी मैन नहीं माना. 
            "नहीं यार, सवाल पैसे या नौकरी का नहीं है.. सवाल है उस सपने का जिसके साथ मै बड़ा हुआ हूँ."
            "देखो विकास भाई...! मै तुम्हारी फीलिंग्स को समझता हूँ लेकिन सच्चाई से भी मुह नहीं मोड़ा जा सकता... अभिषेक ने मेरी आखें खोलने की कोशिश की.... मैंने तो तय कर लिया है कि अगले साल तक स्टेट टीम में पहुच गया और सरकारी नौकरी मिल गयी तो ठीक वरना क्रिकेट छोड़कर पापा की दूकान में बैठने लगूंगा. वैसे भी काम इतना बढ़ गया है कि वो अकेले नहीं सम्हाल पाते. तुम भी देख लो यार कोई सही लाइन. क्रिकेट में तो कुछ हो नहीं सकता हमारे जैसे मिडिल क्लास लोगों का.
             "लेकिन यार, मुझे लगता है कि अभी भी कुछ हो सकता है," मैंने अपनी जिजीविषा व्यक्त की.
             "कुछ नहीं हो सकता... अंकित वर्मा ने पांच लाख दिए थे तब जाकर पंहुचा अंडर नाइनटीन में. तुम्हारे घर वाले देंगे पांच लाख...? और अगर दे भी दें तो एक बार से होगा क्या.... बार बार पेट भरना होगा इन मगरमच्छों का..."तभी मेरा घर आ गया. मैं रुक गया अभिषेक ने आगे बढ़ते हुए दोहराया..."ठन्डे दिमाग से सोचना."
            साइकिल खड़ी करके मैं अपने कमरे में गया और सोफे पर लुढ़क गया. मै सोचने लगा उन दिनों के बारे में जब मैंने यह तय किया था कि मुझे क्रिकेटर ही बनना है. चाहे वह इंटर स्कूल क्रिकेट रहा हो या कमला क्लब की क्रिकेट सीरीज... हर मैच में रनों का पहाड़ लगा रहा था मैं. लगने लगा था जैसे मैं क्रिकेटर बनने के लिए ही पैदा हुआ था.
            मेरा बस एक ही सपना रह गया था कि एक दिन मै टीम इंडिया की ज़रसी पहनकर मैदान में उतरूं. लेकिन आज लग रहा था कि कितना मूर्ख था मैं कि एक सपने का भरोसा कर लिया. मेरी माँ हमेशा कहती थी कि सपने कभी पूरे नहीं होते पर मैं नहीं माना और अपनी जिद पर अड़ा रहा. और आज मेरी इसी जिद ने मुझे बर्बादी की कगार पर पहुच आडिय. काश कि ज़िंदगी में कोई ऐसा बटन होता कि हम रील पलटकर हम फिर पीछे जा पाते और फिर शुरू कर पते अपनी ज़िंदगी को एक नए सिरे से. तभी मैंने सोचा कि अभी भी सब कुछ ख़त्म नहीं हुआ है. अभी भी मुमकिन है वापसी.
             मैंने मन ही मन सोच लिया के खत्म कर दूंगा ज़िंदगी का ये जानलेवा संघर्ष.... मै भी जियूँगा अपने दोस्तों की तरह... और अगर मुझे जीना है तो इस सपने को मरना होगा..हम दोनों एक साथ नहीं जी सकते. ये सोचकर मै उठ खड़ा हुआ... मैंने अपने भीतर हाथ डालकर घसीट लिया अपने सपने को और पटक दिया फर्श पर, फिर लात घूसों से पिल पड़ा... लेकिन मै इतने पर भी रुका नहीं...और दौड़कर किचन से चाकू ले आया...और गुस्से से कांपता हुआ उसकी तरफ लपका. लेकिन इसके पहले कि मै वार कर पाता, वह मेरे पैरो पर गिरकर गिड़गिडाने लगा.....
                       "मत मरो मुझे, तुम ये पाप नहीं कर सकते. ये केवल मेरी ज़िंदगी का नहीं बल्कि समूची स्वप्न जाती के अस्तित्व का प्रश्न है..." वो बहुत जोर जोर से रो रहा था... और बड़ी मुश्किल से उसके धुंधले शब्द मुझ तक पहुच पा रहे थे,  
                          "....हमारी स्वप्न जाती संकट में है...लोग पहले तो हमें बसा लेते हैं अपनी आखों में और फिर अगले ही पाल रौंद डालते हैं, दुनिया से डरकर, घबराकर. कितने लोग हैं जो हमें सहेजकर रखते हैं इतने दिनों तक....? कितने लोग है जो हमारी हिफाज़त के लिए दुनिया से लड़ पाते हैं..? ...मगर तुम लड़े..और पूरी हिम्मत के साथ लड़े...और कौन कहता है कि तुम हार गए...? सच तो यह है कि तुम उन सबसे जीत गए... जो कच्ची उम्र में ही सपनों के ख़ून से अपने हाथ रंग चुके हैं... खुद को देखो और देखो बाकी दुनिया को... किसी की बोली में है वो चहक जो तुम्हारी आवाज़ में है...? किसी की आखों में है वो चमक जो तुम्हारी नज़रों में हैं...किसी के दिल में है वो हौंसला जो तुम्हारे....." वो बोलता ही जा रहा था.
                        मुझे लगा कि मै कोई अपराध करने जा रहा था...किसी गहरी कहें में गिरने वाला था....पर मेरे सपने ने मेरी जान बचा ली. उसने हटा दिया निराशा के बादलों को, और एक बार फिर उम्मीद की रोशनी मुह तक पहुचने लगी. मेरी आखों की चमक बढ़ती जा रही थी, मुझे दिखाई दे रहा था एक स्टेडियम जो दर्शकों से खचाखच भरा था और मेरे कानों में गूँज रहा था एक कानफाडू शोर... और वो जितना तेज़ था.. उतना ही मीठा भी. मैंने चाकू को एक तरफ फेक दिया और अपने प्यारे सपने को बाँहों में जकड लिया, पूरी मजबूती से पूरी चाहत से, मैंने अपने अंदर महसूस की एक अज़ब सी ताकत, लड़ने की ताकत, जीतने की ताकत और सब कुछ बदल देने की ताकत...!
                         अचानक मुझे लगा जैसे किसी ने मुझे पुकारा हो, मैंने पलटकर देखा तो नेपोलियन बोनापार्ट जैसा अक्स दिखाई पडा. उसके चहरे पर एक अजीब सी खुशी दिखाई दे रही थी. उसने मेरे कंधे पर हाथ रखा और मुझसे कुछ कहा. मुझे लगता है उसकी आवाज़ आप सब तक भी ज़रूर पहुची होगी....!




     Aseem Trivedi,
    Freelance Journalist,

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    दखलंदाज़ी जारी रहे..!