उस दिन नन्हें फुदकता हुआ घर आया। रोजी रोटी का जुगाड़ तो हुआ। सुनकर आरती ने नन्हे की गर्दन में बाहें डाल दीं ओर नन्हें ने भी उसे जोर से उठा लिया। मगर थोड़ी ही देर में ख्याल आया कि एक महीने तक क्या करेंगे एक वक्त का खाना तो चाहिए ही होगा। सब कुछ भगवान पर छोड़ दिया।
बेटा छोड़ दो उसे। मैं कहती हूँ फिर बाद में पछतावा किये न होगा। हमारी सारी मर्जाद (इज्जत/ शान) बिगड़ जायेगी। बुढ़िया के स्वर लगातार तेज होते जा रहे थे। नन्हे के लिए यह सब सहनीय हो सकता था अगर वह उसे छोड़ सकता। कैसे छोड़ दूं । व्याह करके लाया हूँ। इन्हीं अम्मा ने पक्का किया था रिश्ता। अग्नि के सामने सात फेरे लगाये हैं। सारी कसमों की साक्षी रही हैं अग्नि। ये बिझुकी वाली बात क्या खुल गई जीना दूभर हो गया। आखिर कौन सी इतनी बड़ी बात है। फिर बड़ी बात भी हो तो इसमें आरती का क्या कुसूर। वो बेचारी तो वैसे ही पागल हुई जाती है। अम्मा तो जैसे निगल जाना चाहती हों उसको। बिझुकी आरती की छोटी बहन है। पिछले इतवार को घर के किसी काम से निकली थी। लौटते शाम हो गयी। जाड़ों का समय था और जाड़ो में तो वैसे ही शाम होते अंधेरा हो जाता है। गांव के ही कुछ आवारा लड़कों का शिकार हो गई बेचारी। पास के लखनू चाचा न निकलते तो न जाने कमीने कब छोड़ते उसे। अब गांव में ढिढोरा पिट गया। इस सब से अम्मा की मरजाद कम हुई जाती है। आखिर रिश्ते नाते बनाये किस लिये जाते हैं। नन्हें भी दादा अम्मा का अल्टीमेटम सुन चुका था- "बहू को छोड़ दो या लेकर निकल जाओ इस घर से"।
अन्धेरा होते.होते निकलने का मन बन गया नन्हें का। आरती को लेकर निकल पड़ा घर से। साथ में कुछ कपड़े शादी की एल्बम और अपनी एम0ए0 तक की डिग्रियां और मंजिल का कुछ पता नहीं। कुछ ही देर में स्टेशन पहुंच गये दोनों। आरती भी पढ़ी लिखी थी प्यार भी बहुत करती थी नन्हे को। “कहां चलोगे मेरे पीछे! काहे अम्मा दादा से बैर लेते हो”, और नजरे झुकाकर रोने लगी। नन्हें को इस समय अपनी मंजिल ही दिखाई देती थी। दिल्ली जाने वाली गाड़ी पर टिकट लेकर बैठ गया। जेब में अब एक हजार रूपये और टिकट पड़ा था। सारा सफर यूं ही गुमशुम कट गया। दिल्ली स्टेशन पर पहुंचते ही सवेरा हो गया। हांथ मुंह धोकर दोनों आगे बढ़े। अब तक आरती कुछ खुल चुकी थी। उसकी सिसकियां बन्द हो गयीं थीं। जान चुकी थी कि इस कठिन घड़ी में उसका पति उसके साथ है। दोनों ने खाना खाया। दिल्ली में दोनों की दूर-दूर तक कोई जान पहचान नहीं थी। नन्हे को आज ही रहने का ठिकाना चाहिए था साथ ही कोई रोजगार भी। कोई काम हो कैसा भी हो क्या करना। बस फिलहाल तो रोजी कमानी है। आरती भी पढ़ी लिखी थी। कुछ तो कर ही सकती थी। अभी किसी के घर खाना भी बनाना पड़े तो क्या हर्ज है। खाना वह अच्छा बना लेती थी।
खैर कमरे की तलाश शुरू हुई। कोई घर उनको कमरा देने को तैयार नहीं था। तरह.तरह की पूछतांछ। लगता है भाग कर आये हो। घर बार कहां है। अजनबियों पर कैसे भरोसा हो। नन्हे ने अपनी डिग्रियां दिखाई पर घर की औरतों को इससे क्या मतलब। नन्हें की मिन्नते काम न आईं। फिर उसे अपनी शादी की एल्बम दिखाई तो कहीं जाकर कमरा मिला। न ओढ़ने को था न बिछाने को। उस दिन जमीन पर ही सो लिया दोनों ने। खाना भी नहीं खाया। अगने दिन उसी शर्ट को जो पिछले दिन धोकर सुखाई थी, पहनकर नन्हें उर्फ नन्द कुमार शर्मा कई स्कूलों का चक्कर काटाता रहा। एक स्कूल में आठ सौ माहवारी में तय हुआ।
उस दिन नन्हें फुदकता हुआ घर आया। रोजी रोटी का जुगाड़ तो हुआ। सुनकर आरती ने नन्हे की गर्दन में बाहें डाल दीं ओर नन्हें ने भी उसे जोर से उठा लिया। मगर थोड़ी ही देर में ख्याल आया कि एक महीने तक क्या करेंगे एक वक्त का खाना तो चाहिए ही होगा। सब कुछ भगवान पर छोड़ दिया। मकान मालिक दयालु था। रोटियां और शब्जी भिजवा दी। उस बच्चे से मालूम पड़ा कि वह सातवीं कक्षा में है। मकान मालिक ने ट्यूशन की पेशकश की। आरती का वह पहला ट्यूशन था।
उसके बाद आरती ने कितने बच्चे पढ़ाये और नन्द कुमार शर्मा ने फिर कितने स्कूल बदले कहना मुश्किल था। आज चार साल बीत गये हैं। आरती ने अपना आरती ट्यूटोरियल्स खोल लिया है और नन्द कुमार शर्मा के0पी0 पब्लिक स्कूल में लेक्चरर हैं। अब दोनों जून की रोटी आराम से खाते हैं वे।
पिछले चार सालों में काम और सिर्फ काम किया है दोनों ने। भाग्य ने भी अच्छा साथ दिया। दोनों ही परिवार से दूर रहकर अपने कामों में लगे रहे। चिन्ता रहती थी कि जाने वहां क्या-क्या हो चुका होगा। सब लोग हमें ढूंढते होंगे। आज दोनों को अपने नये मकान में सबकी बहुत याद आ रही है। नन्हे ने शहर के पाश इलाके में यह फ्लैट किराये पर लिया है। पर आज दोनों को यहां अच्छा नहीं लग रहा है। दोनों जब दिल्ली आये थे तब ही ठान लिया था कि अब घर की बातें नहीं करेंगे। पर न जाने क्यूं आज दोनों ही भावावेश में बह उठे। नन्हें का दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। उसे लगा जैसे अम्मा और दादा उसे बुला रहे हैं। नन्हे के हाथ अनायस ही फोन के रिसीवर पर पहुंच गये। नम्बर मिला दिया। घण्टी बजते ही उसका हृदय धाड़.धाड़ बजने लगा। ‘कौन’, फोन पर अम्मा थी। अम्मा मैं नन्हें। हां बेटा तू घर लौट आ। मुझे बहू से अब कोई गिला नहीं। भगवान का लाख-लाख शुक्र है, घर की मर्जाद बच गई। लौट आ बेटा बिझुकी मर गई है।
आलोक दीक्षित
Alok Dixit
Journalist
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