......किससे जाकर क्या कहूँ ,
इससे तो अच्छा है चुप ही रहूँ
कौन समझेगा मेरे दिल की बात
कितनी रातें सोयी नहीं मेरी आंख
कौन बो रहा है मुझमें क्या-क्या कुछ
कौन कहता है मुझसे क्या-क्या कुछ
जो गुनता हुं मैं,कह नहीं सकता
और कहे बिना भी रह नहीं सकता
कौन सुनेगा मेरे दिल की बात
क्या समझेगा वो मेरे दिल की बात
.........किससे जाकर क्या कहूँ ,
इससे तो अच्छा है चुप ही रहूँ
जहर की माफ़िक जो भी मिलता है
प्रसाद की तरह उसे पी जाता हूँ
मुझमें सब कुछ गुम हो जाता है
और मैं सब में गुम हो जाता हूँ
मगर खुद को किस तरह रखूं
कि मेरा खुद अपने आपे में रहे
........किससे जाकर क्या कहूँ ,
इससे तो अच्छा है चुप ही रहूँ
कितना कुछ देखता रहता हूँ
फ़िर भी कितना बेबस रहता हूँ
गूंगा-बहरा-अंधा और बेबस होकर
पागलों की तरह जीता रहता हूँ
मैं फ़िर क्यूं आया हूँ धरती पर
गरचे कुछ नहीं करना है यां पर
कितना कुछ तो कहता रहता हूँ
क्या-क्या अंट-शंट बकता रहता हूँ
मगर इस कहने से होगा क्या
हरदम बकते रहने से होगा क्या
.........किससे जाकर क्या कहूँ ,
इससे तो अच्छा है चुप ही रहूँ
इक दिन यूं ही मर जाउंगा
खुद को बौना कर जाउंगा
गुमसुम जीने से भी होगा क्या
लिखने-पढ्ने से भी होगा क्या
मेरे आसपास गर सब कुछ वैसा ही है
आदमी बिल्कुल भी इन्सां जैसा नहीं है
किन-किन बातों पर ये लड्ता रहता है
उलटा-सीधा क्या-क्या करता रहता है
और फिर भी खुद को क्या समझता है
मैं इन बातों पर अपना सर क्यों फोडूं
.........किससे जाकर क्या कहूँ
इससे तो अच्छा है चुप ही रहूँ .......!!