मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
हां....गर्व से कहिए कि हम एक समाज हैं......!!
कभी जब भी मैं अपने आस-पास के समाज पर नज़र दौडाता हूं....तो ऐसा लगता है कि यह समाज नहीं....बल्कि एक ऐसी दोष-पूर्ण व्यवस्था है,जिसमें लेशमात्र भी सामाजिकता नहीं.....उदाहरण हर एक पल हमारे सामने घटते ही रहते हैं....इस समाज में जीवन-यापन के लिए नितांत आवश्यक चीज़ है आजीविका का साधन होना....और दुर्भाग्यवश यही आजीविका का सिस्टम ही ऐसा बना दिया गया है कि इससे बचने का कोई रास्ता भी नज़र नहीं आता....अब ये सिस्टम क्या है,ज़रा इस पर भी गौर करें...मगर इससे पूर्व यह भी देख लें कि पहले कम-से-कम भारत में क्या हुआ करता था....सदियों पहले व्यापार जब हुआ करता था...उसमें व्यापारी लोग किसान या उत्पादन-कर्ता से माल खरीद कर खुद उसे यत्र-तत्र ले जाकर बेचा करते थे....इस प्रकार लोगों को महज दो हाथों से होकर किसी भी तरह का माल उपलब्ध हो जाया करता था...इसका अर्थ यह भी हुआ कि किसी भी तरह का माल अपने उत्पादक हाथों से [उनके उचित लाभ को जोडकर]व्यापारी से होकर [पुन: उनके उचित लाभ को चुकाकर]छोटे शहरों के दुकानदारों के हाथों [उनका लाभ चुकाकर]उपयोग-कर्ताओं तक पहुंचता था...देख्नने में तो यह बात आज की परिस्थितियों जैसी ही जान पड्ती है....मगर वैसा है नहीं....यहां देखने वाली बात यह है कि...यहां कोई बिचौलिया आदि का अस्तित्व नहीं दिखायी देता और साथ ही माल ढोने वाला ट्रांसपोर्टर खुद् व्यापारी ही हुआ करता था...इस प्रकार कम-से-कम दो जगह लाभ का बंट्वारा होने से बचता था....इसका अर्थ यह भी हुआ कि उपयोग-कर्ता तक कोई भी माल थोडी कम,या यूं कहूं कि वाजिब कीमत में,पहुंचता था,तो भी गलत नहीं होगा...मेरे द्रष्टिकोण से जिस समय इस वर्तमान किस्म का व्यापार का चलन ना हुआ होगा....व्यापारी भी उचित लाभ लेकर ही कीमत का निर्धारण किया करता होगा....कम-से-कम पुराने काल की कीमतों को जब हम आंकते हैं तो साफ़-साफ़ यह पता चलता है.....कि बहुत दूर तो क्या अभी हाल के सात-आठ दशकों पूर्व भी कीमतें बिल्कुल उचित हुआ करती थीं...और यह भी कि उस वक्त कीमत तय करने का सिसट्म बेहद पारदर्शी हुआ करता था....जहां अंतिम खरीदार को भी सभी जगह वितरीत हुए लाभों का पता हुआ करता था !!
आज अब जैसा कि सिस्टम बना जा रहा है....या कि बनाया जा रहा है...या कि बना दिया है...उससे यह साफ़ परिलक्छित होता है कि यह सिस्ट्म सत्ताधिकारियों-उत्पादन-कर्ताओं और बडे व्यापारियों की सांठ-गांठ रूपी व्यभिचार का सिस्टम है...जिसमें सरकार उत्पादनकर्ता या बडे रसूखदार व्यापारी को सब-कुछ करने की असीम छूट देती है...बदले में सरकार को पिछ्ले रास्ते से उसका "हिस्सा" पहुंच जाया करता है...और बेशक यह किसी को भी दीख नहीं पाता....यह सब इतना सुचारू है... नियमित है...प्रबंधित है....कि आम आदमी की तो क्या बिसात....अच्छे-अच्छों को भी इस सिस्टम में छिपे व्यभिचार का जरा भी आभास नहीं है....सिर्फ़ वो ही लोग इसे जान और समझ पाते हैं,जो इस सिस्टम से जा जुड्ते हैं....और इसकी कीमत चुकाते हैं... अरबों-अरबों लोग....क्या कोई जानता है...कि उसके हाथों तक पहुंचने वाली किसी भी वस्तु की उचित कीमत क्या होनी चाहिए..??
क्या किसी को इस बात का आभास भी है....बडी-बडी "बहु"-राष्ट्रीय कंपनियां...जो अपनी मोनोपोली द्वारा अकूत लाभ बटोरे जाती हैं,वो दरअसल हमें पता भी नहीं कि एक रुपये की लागत की वस्तु का मुल्य यानी कि एम.आर.पी. क्या तय कर सकती हैं...क्या आप में से कोई अंदाजा भी लगा सकता है...??नहीं....!!??.....तो फिर जान लीजिये आपके लिये यह कीमत कम-से-कम दस रुपये तो होगी ही....बीस रुपये तक भी हो सकती है....और किसी असामयिक परिस्थिति में [अर्थशास्त्र के अनुसार डिमांड बढ्ने पर वस्तुओं के मूल्य में ब्रद्धि होती है....और यह अर्थ-शास्त्र किन लोगों ने लिखा....??]पचास रुपये तक भी जा सकती है...और अकसर जाया भी करती है....!!
कहने को तो आदमी ने अपनी सुरक्शा के लिए इस समाजरुपी तंत्र का निमार्ण किया है....हम खुद भी समाज के रूप में स्वयं को शायद बेहतर समझते हैं....मगर....समाज अगर सच्ची ही समाज है....तो क्या वह अपने सदस्यों से इस तरह की लूट्पाट कर सकता है...??.....एक रुपये की वस्तु का इतना नाजायज मुल्य ले सकता है....मोनोपोली....बिचौलिए .....सरकारी कमीशन.....ट्रांसपोर्टर.....और आज का सबसे बडा खर्च विज्ञापन....और सबसे बढ्कर इन ये सब मिलकर किसी भी वस्तु का मुल्य...इतना-इतना-इतना ज्यादा बढा देते है....कि आम आदमी को तो यह भी नहीं पता कि उसके द्वारा उसकी अथाह मेहनत से कमाए जा रहे जरा से रुपये से किया जाने वाला एक-एक रुपये का खर्च किस प्रकार कुछ थोडे से लोगों की संपत्ति में इजाफा किये जा रहा है.....!!!
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