भगतसिंहः जीवन की उद्दाम लय

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  • Thursday, September 30, 2010
  • भगतसिंहः जीवन की उद्दाम लय

    कनक तिवारी


     (कनक तिवारी जी से सधन्यवाद लिया गया )





    Bhagat-singh-handwriting














    भगतसिंह का जीवन प्रकाश की तरह उजला और सूरज के ताप की तरह उष्ण था. अध्ययन और अध्यवसाय के बिना क्रांति की कोई भी कल्पना उन्होंने नहीं की. किसान मजदूर और विद्यार्थी उनके लिए क्रांति के आधार थे. वे अनोखे और मौलिक नेता थे.

    अनोखे इसलिए कि वे किसी लीक पर नहीं चले. उन्होंने भारतीय क्रांति और स्वतंत्रता-युद्ध के मूल्य स्थिर और विकसित करने में परंपरावादी राजनीतिशास्त्र का मुखौटा नहीं लगाया. वे समर्पित नौजवानों की एक बड़ी टीम बनाए जाने के पक्षधर थे जो इन राजनीतिक आदर्शों के सपने को यथार्थ में तब्दील कर सके. उनके बहुत से साथी तार्किक दृष्टि से सम्पन्न और समान बौद्धिक घनत्व के थे. लेकिन विचार और कर्म के समन्वय को ध्रुव तारे की तरह आकाश में टांक देने की भगतसिंह की बौद्धिक कुशलता उन्हें इतिहास में ईर्ष्या योग्य बनाती है. उनमें खतरों से खेलने का रूमानी एडवेंचर शुरुआत में भले रहा हो, बाद की वैचारिक प्रौढ़ता गाढ़े वक्त हिन्दुस्तान की आजादी को लेकर बहुत काम आई.

    समाजवाद और साम्यवाद के प्रति गहरा झुकाव उन्हें क्रान्तिकारी आन्दोलन की बौद्धिकता का भगवतीचरण वोहरा तथा शचीन्द्र नाथ सान्याल की तरह जिज्ञासु शिल्पकार बनाता है. यह कहना लेकिन तथ्यात्मकता के प्रतिकूल है कि भगतसिंह का पहला चयन साम्यवाद के प्रति समर्थन था. समाजवाद के सिद्धान्तों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का इतिहास गहन छानबीन का विषय है. इस महान वैचारिक नवयुवक को लेकर लाल या भगवा फतवा आसानी से नहीं दिया जा सकता. उनकी वास्तविक पहचान स्वतंत्रता आंदोलन के निकष का जरूरी अंश है.

    उनके साथी भगवानदास माहौर के अनुसार भगतसिंह ने उन्हें बाकुनिन की पुस्तक 'दी गॉड एन्ड दी स्टेट' पढ़ने को दी थी. उन्होंने माहौर को मार्क्स की 'केपिटल' भी पढ़ने को दी लेकिन बकौल माहौर वह उनके पल्ले नहीं पड़ी. माहौर के अनुसार अपनी समाजवादी प्रतिबद्धताओं के बावजूद “भगतसिंह समाजवाद के अच्छे पंडित नहीं थे. परन्तु भगतसिंह की विशेष क्रान्तिकारी देन यही है कि उनके समय से क्रान्तिकारियों का आर्दश माजवादोन्मुख हो गया.”

    भगतसिंह ने पूरी तौर पर सशस्त्र क्रांति को खारिज भी नहीं किया. लेकिन उन्होंने साफ कहा कि सशस्त्र क्रांति उस समय ही अनिवार्य विकल्प है, जब जनता पूरी तौर पर क्रांति के नियामक मूल्यों के लिए सुशिक्षित हो जाए. यक्ष प्रश्न यह है कि क्या भगतसिंह और उनके साथियों का हिंसा में तात्विक विश्वास था? सीधा उत्तर है-नहीं.
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    सशस्त्र क्रांति का समर्थन भगतसिंह की थ्योरी में हिंसा का समर्थन नहीं है. दरअसल असेंबली में भगतसिंह और दत्त ने बम नहीं, क्रांति के अग्निमय शोलों से लकदक लाल परचे फेंके, जो किसी भी मुर्दा कौम में बगावत के स्फुलिंग भर सकते हैं. वह ब्रिटिश सम्राज्यवाद को भारतीय युवकों की एक प्रतीकात्मक चुनौती थी. फांसी की सजा के पहले उनके जैसा बेहतर बयान आज तक किसी राजनीतिक कैदी ने वैधानिक इतिहास में नहीं दिया.

    भगतसिंह के साथियों का पूरा जीवन धर्म निरपेक्षता को परवान चढ़ाते बीता. भगतसिंह हिन्दुस्तान के पहले महत्वपूर्ण वैचारिक थे जो पूरी तौर पर प्रचलित मजहबी रूढ़ियों के दायरों से बाहर थे.

    1931 के पहले से यह भगतसिंह का इतिहास को उद्बोधन था कि गरीब के लिए इंकलाब और आर्थिक बराबरी लाने, समाजवाद को साकार करने, देश का निर्माण करने, चरित्र के नये आयाम गढ़ने तथा दुनिया में हिन्दुस्तान का यश रेखांकित करने के लिए मजहबों के अहसान की जरूरत नहीं होनी चाहिए. ऐसी चुनौतियों का जवाब इक्कीसवीं सदी भी ढूंढ़ नहीं पा रही है.

    शहादत के अस्सी वर्ष बीत जाने पर भी दुनिया और भारत उन्हीं सवालों से जूझ रहे हैं जिन्हें भगतसिंह ने वक्त की स्लेट पर स्थायी इबारत की तरह उकेरा था. साम्राज्यवाद, पूंजीवाद, अधिनायकवाद और तानाशाहियां अपने जबड़े में लोकतंत्र, समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, सर्वहारा और पूरे भविष्य को फंसाकर लीलने के लिए तत्पर हैं. वे भविष्यमूलक इबारत गढ़ रहे थे.

    उन्होंने जो कुछ पढ़ा, अधिकांश अंग्रेजी और पंजाबी में, लेकिन जो कुछ लिखा और बोला उसका अधिकांश हिन्दी में. यह भगतसिंह की नए भारत के बारे में सोच है. इसकी डींग उन्होंने नहीं मारी. हिंदी वांग्मय में अपना स्थान सुरक्षित करने के लिए भगतसिंह के यश को वर्षों तक इंतजार करना पड़ा.

    जैनेन्द्र कुमार, अज्ञेय और यशपाल वगैरह के साहित्य में भगतसिंह और क्रांति आंदोलन रेखांकित है. यद्यपि उसे पूरी तौर पर भगतसिंह के व्यक्तित्व का चित्रण नहीं कहा जा सकता. अज्ञेय और यशपाल तो क्रांतिकारी भी रहे हैं. इसके बावजूद जिस धारदार गद्य की उनसे अपेक्षा थी वह दिखाई नहीं पड़ता. अज्ञेय धीरे-धीरे आभिजात्यपूर्ण और कुलीन होते गए थे. यशपाल पर क्रांतिकारी आंदोलन में विवादग्रस्त भूमिका अदा किए जाने का आरोप है.




    बहुआयामी जीवन की चुनौतियां लिए भगतसिंह पस्तहिम्मत या निराश नहीं हुए. समाजवाद के पक्ष में भगतसिंह ने बाकी वैचारिकों के समानांतर एक लकीर खींची लेकिन प्रयोजन से भटक कर ऐसा विवाद उत्पन्न नहीं किया, जिससे अंगरेजी सल्तनत को लाभ हो. उन्होंने तर्क के बिना किसी भी विचार या निर्णय को मानने से परहेज किया. उनके तर्क में भावुकता है और भावना में तर्क है.

    भगतसिंह देश के शायद पहले विचारक हैं, जिन्होंने दिल्ली के क्रांतिकारी सम्मेलन में कहा था कि सामूहिक नेतृत्व के जरिए पार्टी को चलाने का शऊर सीखना होगा. यदि कोई चला भी जाए तो पार्टी नहीं बिखरे क्योंकि व्यक्ति से पार्टी बड़ी होती है और पार्टी से सिद्धांत बड़ा होता है.

    विचारों की सान पर जो चीज चढ़ेगी वही तलवार होती है-यह उस कालजयी क्रांतिकारी ने सिखाया था. उनके जुमले में देश में तार्किकता, बहस, अभिव्यक्ति की आजादी, जनप्रतिरोध, सरकारों के खिलाफ अराजक तक होकर खड़े होने का अधिकार छिन रहा है. देश में मूर्ख (भी) सत्ता पर लगातार बैठ रहे हैं. जो चारित्रिक हस्ताक्षर नहीं हैं, देश के राजनीतिक चेक पर दस्तखत कर रहे हैं. आईएएस क़ी नौकरशाही में अब भ्रष्ट अधिकारी इतने ज्यादा हैं कि अच्छे अधिकारी ढूंढ़ना मुश्किल है. देश में निकम्मे साधुओं की जमात है, जो समाज के वटवृक्ष पर अमरबेल की तरह चढ़ी मलाई खा रही है.

    मेहनतकश मजदूरों के लिए वेतन बढ़ने की सम्भावनाएं और असंगठित मजदूर नक्कारखाने में तूती की तरह हैं. असंगठित मजदूरों को संगठित करने की कोशिश नहीं होती. पहले से ही अंगरेजों की तरह सुरक्षित लोगों के अधिकारों की सुरक्षा के और कड़े कानून बनते जा रहे हैं. संसद ने आज तक नहीं सोचा कि किसानों के भी कुछ बुनियादी अधिकार भारतीय किसान अधिनियम जैसे कानून में होने चाहिए.

    अंगरेज और भारतीय हुक्मरान दोनों उनसे भय खाते हैं. उनके विचारों को क्रियान्वित करने में कानूनों की घिग्गी बंध जाती है. संविधान पोषित राज्य व्यवस्था में यदि कानून ही अजन्मे, अपरिभाषित और गूंगे रहेंगे, तो लोकतंत्र की प्रतिबद्धताओं का क्या होगा? भगतसिंह ने इतने अनछुए सवालों का र्स्पश किया है कि उन पर अब भी समझ विकसित होना बाकी है.

    उनके विचार केवल प्रशंसा के योग्य नहीं हैं. उन पर क्रियान्वयन कैसे हो-इसके लिए बौद्धिक और जन आन्दोलनों की जरूरत है.

    सवाल यह है कि दुनिया के इतिहास में तेईस, चौबीस वर्ष की उम्र का कोई बुद्धिजीवी भगतसिंह से बड़ा हुआ है? उनका यह चेहरा इतिहास की तश्तरी में रखकर परोसने का कोई भी कर्म हिन्दुस्तान में सरकारीगैर सरकारी संस्थानों सहित प्रशंसक-परिवार ने भी नहीं किया. तेईस वर्षों की उम्र का एक नौजवान स्थापनाएं करके चला जाये-ऐसी संभावना भी इतिहास में अमूमन नहीं होती है.

    उन्हें इस तरह इतिहास और भूगोल के संदर्भ में रखकर प्रत्यक्ष विवेचित करने से उर्वर और स्फुरणशील निर्णय निकलते हैं. शैक्षणिक पाठयक्रम में समकालीन विचारक भगतसिंह शामिल नहीं हैं. ऐसे लेखकों की पुस्तकें अलबत्ता दर्ज होती हैं, जो विचार के जनपथ के हाशिए तक के लायक नहीं हैं. जिस साथीपन के साथ उनकी टीम ने भारतीय आजादी के लिए मुकम्मल संघर्ष किया, वह साथीपन लोकतंत्र से गायब है.

    यह दुर्भाग्य है कि भगतसिंह का उत्सर्ग कच्चे माल की तरह रूमानी क्रांतिकारी फिल्मों का अधकचरा उत्पाद बनाकर उस नवयुवक पीढ़ी को बेचा जा रहा है, जिसके सामने अपने देश में बेकारी का सवाल मुंह बाए खड़ा है. भगतसिंह का असली संदेश किताबों को पढ़ने की ललक और उससे उत्पन्न अपने से बेहतर बुद्धिजीवियों से सिद्धांतों की बहस में जूझने के बाद उन सबके लिए एक रास्ता तलाश करने का है, जिन करोड़ों भारतीयों के लिए बहुत कम प्रतिनिधि-शक्तियां इतिहास में दिखाई देती हैं.
    कनक तिवारी जी से सधन्यवाद लिया गया 
    कौम के मसीहा वे ही बनते हैं, जो देश की लड़ाई या प्रगति को मुकाम तक पहुंचाते हैं और खुद अपने वैचारिक मुकाम तक पहुंचने का वक्त जिन्हें मिल जाता है.

    भगतसिंह अल्पायु में दुर्घटनाग्रस्त होने के बावजूद इतिहास की दुर्घटना नहीं थे. उनसे कई मुद्दों पर असहमति भी हो सकती है लेकिन बौद्धिक मुठभेड़ किए बिना तरह-तरह की विचारधाराओं का श्रेष्ठि वर्ग उनसे कन्नी काटता रहा है.

    भगतसिंह के साथ दिक्कत यह भी है कि हर संप्रदाय, जाति, प्रदेश, धर्म, राजनीतिक दल, आर्थिक व्यवस्था उन्हें पूरी तौर पर अपना नहीं पातीं. उनके चेहरे की जुदा जुदा सलवटें अलग अलग तरह के लोगों के काम आती हैं. वे उसे ही भगतसिंह के असली चेहरे का कंटूर घोषित करने लगते हैं. असली चेहरा तो पारदर्शी, निष्कपट, स्वाभिमानी, जिज्ञासु, कर्मठ और वैचारिक नवयुवक का है. वह रूढ़ व्यवस्थाओं को लेकर समझौतापरक नहीं हो पाया. 
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