कभी सुना है आपने
किसी शायर का खुद ही एक ग़ज़ल बन जाना
बिना काफिये की बिना रद्दीफ़ की
बिना लफ़्ज़ों की बिना बातों की
जो न पढ़ी जा सके न सुनी जा सके
हल्की फुल्की सी, हवा में तैरती रहे
जिसे महसूस करना भी आसान न हो
बस बिखरी रहे यहाँ वहां
जर्रे-जर्रे में, लम्हे-लम्हे में
बस बहती रहे बेसाख्ता सांसों की तरह
न कोई वज़ह हो न कोई असर
न कोई छू पाए न कोई पकड़ पाए
न कोई कैद कर पाए तारीख के पन्नों में कभी
बस कभी छू के निकल जाये आपको
यूं ही कुहासे की तरह
और छोड़ जाएँ कुछ ठंडी ठंडी सी बूँदें
और एक ठिठुरता हुआ सा एहसास
जो जिस्म की ढाल चीरकर सीधे रूह में उतर जाये
और फिर क्या पता
आप भी एक ग़ज़ल बन जाएँ
बिना काफिये की, बिना रद्दीफ़ की
हल्की फुल्की सी, हवा में तैरने वाली....

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