बcचों के छोटे हाथों को चांद सितारे छूने दो.....!!

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  • Wednesday, May 12, 2010
  • बच्चों के छोटे हाथों को चांद सितारे छूने दो !!
    पता नहीं कब से हमने अपने बच्चों को अपनी नाक का सवाल बना कर रखा हुआ है और अक्सर हमारी नाक हमारे बच्चों के कतिपय कार्यों से नीची हो जाया करती है यह हमारे मासूम बच्चों समझ भी नहीं पाते और मज़ा तो यह भी है कि हमारे लाख समझाने पर भी वो हमारी इस प्रकार की बातों के अर्थ नहीं समझ पाते और बार-बार वही-वही गलतियां करते हैं,जिन्हें हम पसंद नहीं करते…
    हालांकि हमारे बच्चों यह बात भली-प्रकार जानते और समझते है,कि उनकी कि्सी बात का उनके मां-बाप को पसंद नहीं आने का मतलब क्या होता है,मगर भला हो इस बचपने का भी जो बच्चों से बार-बार इस प्रकार का बचपना करवा ही डालता है और तब हमारे क्रोध का पारावार नहीं रहता !!
    पता नहीं क्यों अपने खुद के बचपने के दरम्यान की गयी हज़ारों नादानियों को हम याद क्यों नहीं रख पाते पता नहीं हम यह क्यों सोच नहीं पाते कि बचपना तो होता ही है नादानियों के लिये है और नादानी भरी मासूम सी बदमाशियों के कारण ही बच्चे हमें बेहद प्यारे लगा करते हैं,उनके छोटे-छोटे हाथ-पैरों ही नहीं अपितु भोले-भाले दिमाग के द्वारा की जाने वाली हरकतों वाले द्र्श्य ही तो हमारा मन मोह लेते हैं,मन मोह लेते हैं ना ??
    मगर फ़िर भी हम हैं कि ज़रा से बडे हुए नहीं कि अपने ऊपर बड्प्पन का बोझिल-सा लबादा ऐसा लाद लेते हैं कि फ़िर धीरे-धीरे अपना असली चेहरा भी भूल जाते हैं,अपने बचपन का मासूम चेहरा !! और तब इस नये चेहरे में हमारा माधुर्य-हमारा सौंदर्य-हमारे सपने सब-के-सब खो जाते हैं,हमारे चेहरे पर एक खा जाने वाली मारक कठोरता तारी हो जाती है…हम पत्थर बन जाते हैं और विडंबना तो ये है कि हम खुद को यही मान लेते हैं जीवन भर के लिये….कभी भी लौट कर बच्चे नहीं हो पाते हमारे अंदर एक भयानक किस्म की रिक्तता भर जाती है !!
    बेचारे हमारे बच्चे हमारे फ़िज़ूल के शगल के किस प्रकार शिकार होते हैं,जब कोई मेहमान हमारे घर पर आता है…तो दो-दो चार-चार बरस के छोटे-छोटे बcचे जिनसे हम फ़रमायिश करते हैं कभी ये सुनाने की तो कभी वो सुनाने की…बच्चे तो बडे मनचले होते हैं…जब तो उन्होंने सब ठीक-ठाक सुना दिया तब तो बच्चे से ज्यादा खुद हमारी बाछें खिल-खिल जाती हैं,मगर जहां उन्होंने कुछ आना-कानी की या फ़िर कुछ मूंह-जोरी की तो हमारे खुद के चेहरे बुझ जाते हैं…हमारे चेहरे तब वाकई देख्नने लायक होते हैं यहां तक तो फ़िर भी गनीमत होती है मगर हद तो तब होती है जब हमारा उतावलापन उनपर हमारी धौंस-डांट-फ़ट्कार या फ़िर मार-पीट तक के रूप में चढ बैठ्ता है…!!
    अक्सर जीवन में हम अपना सोचा हुआ सपना पूरा नहीं कर पाते…और अपने मासूम बच्चों में वो सपने पैदा करने लगते हैं बcचे चुंकि हम पर अंधा विश्वास करते हैं इसलिये वो हमारी आंखों में हमारी अपूर्ण लालसाएं नहीं पढ पाते…उन्हें हमारा गुस्सा हैरान जरूर करता है मगर वो जानते हैं कि हम यह सब दर असल उनके भले के लिये ही कर रहे हैं और वो प्रत्येक बार हमारे गुस्से को अनदेखा किये चले जाते हैं…मज़ा यह कि हम अपने बcचे में छिपी समझदारी को कभी नहीं भांप पाते…!!
    अपने बच्चों को हर बार हर बात पर सफ़ल होते हुए देख्नना या फ़िर हर जगह अव्वल ही पाना,यह हमारे दिमाग का एक रोमांटिक मगर दिवालिया फ़ितूर है…और अगर है भी तो रहा करे हमारी बला से…किसी और पर ,यहां तक कि खुद की संतान पर इसे लादना दोषपूर्ण ही नहीं बल्कि अन्याय पूर्ण भी है…हममें से कभी कोई यह भी समझने को तैयार नहीं होता कि हर जगह लिटिल चैंप तो एक ही एक होता है बाकि तो सब उसके इर्द-गिर्द ही होते हैं !!
    हममे से हर कोई अपना बचपन अपनी तरह से गुजार कर आता है.…तो किसी अन्य को उसका बचपन खेलने देने में हमें एतराज़ क्यों होना चाहिये…अब रही आपकी इच्छा-पूर्तियों की बात तो भईया जो काम आप खुद ना कर सके तो अब उसे जाने भी दिजिए ना…अब जो जुगाड आपको मिला है उसी में खुश रहिये…!!
    बच्चों पर अपने सपने लादना बहुत बुरा होता है बहुत बुरा…हर कोइ धरती पर अपनी एक भूमिका लेकर आता है…आप अपनी भूमिका जी रहे हो.…तो फ़िर बच्चों को भी उनकी भूमिका जीने दो ना अच्छा रहेगा……आखिर तुम्हारे ही तो बच्चों हैं…… हैं ना दोस्तों……!!शायर ने तो कहा भी है
    बcचों के छोटे हाथों को चांद सितारे छूने दो
    चार किताबें पढ कर ये भी हम जैसे हो जाएंगे !!
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