निंदक नियरे राखिये आंगन कुटी छबाय.... जब छोटा था तो इस लाइन को पढ़कर पहली बात ये मन में आती थी कि शायद हिंदी से ही इंग्लिश का जन्म हुआ है... वरना ये नियरे और नियर शब्द इतने एक जैसे न होते. परन्तु अब ये पंक्ति सुनकर और भी खलबली मचती है ह्रदय में.... कि आखिर निंदक को पास रखने का क्या मतलब. हम तो दूर दूर तक अपने निंदक को नहीं देखना चाहते. परन्तु फिर ऐसा क्यों कहा गया कि निंदक को पास रखने और वो भी आंगन में झोपड़ी बनवाकर. दरअसल ऐसा इसलिए है कि बिना निंदक किसी व्यक्ति, संस्था या परंपरा का विकास नहीं हो सकता. जब तक हमारे साथ निंदक नहीं होगा हम नहीं समझ सकते कि क्या गलत हो रहा है, अपने दोष स्वयं देखा पाना कठिन है. क्योकि आंख के एकदम नज़दीक कि चीज़ें अक्सर धुंधली दिखाई देती हैं. इसलिए इस काम के लिए दूसरों कि मदद लेना ही बेहतर विकल्प होता है. दरअसल ये सारी बात अचानक भूतनाथ जी का नया लेख पढ़कर मष्तिष्क में उत्पन्न हुई. साहित्य में शुरू से ही आलोचक कि महत्वपूर्ण भूमिका रही है किन्तु फिर भी ब्लॉग जगत में आलोचकों की कमी की ओर कभी ध्यान ही नहीं गया. किन्तु भूतनाथ जी को पढ़कर ये स्पष्ट है कि कुछ लोग इस बारे में गंभीरता से विचार कर रहे हैं. ख़ुशी है कि आज हमारे साथ एक आलोचक भी उपस्थित हैं. हम चाहेंगे कि उनके इस लेख कि ओर गंभीरता से ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है. उनसे मेरा निजी आग्रह है कि वो ब्लोग्स कि समालोचना का कार्य जारी रखें. और उनसे अनुरोध है की हमारे ब्लॉग कि भी समीक्षा करके हमारे दोष सामने लाने का कष्ट करें. मै भूतनाथ जी से एक बात और कहना चाहता हूँ कि वो एक बार विचार करें कि वो कितनी बार दूसरों के लेख और कविताओं पर कॉमेंट्स देते हैं. आपको अच्छी हो या बुरी प्रतिक्रिया तो देनी ही चाहिए. यदि इसी प्रकार हम दूसरों की पोस्ट्स को पढने का जोखिम ही नहीं उठाएंगे. और उनकी तारीफ या आलोचना में कुछ नहीं लिखेंगे तो हम ब्लॉग जगत को उन लोगों से भी ज्यादा नुकसान पहुचाएंगे. जो बिना पढ़े ही लेखों की तारीफ कर दिया करते हैं. ऐसी उपेक्षा तो किसी भी नए रचनाकार को निराश करने का कार्य कर सकती है. (उपरोक्त बिंदु पर आपकी राय जानना मेरे लिए ख़ुशी का विषय होगा).
आपने अपने ज्वलंत लेख में संपादकों की महिमा के बारे में जो लिखा है उससे भी मै पूरी तरह सहमत नहीं हूँ. जैसा कि अलोक ने अपनी पोस्ट में लिखा है, हम तमाम पत्र पत्रिकाओं को अपने लेख और कवितायेँ इत्यादि भेजा करते थे. वापसी का लिफाफा साथ में रखकर और उस पर टिकट चिपकाकर. उन पर कतई विचार नहीं किया जाता था. कई बार उनमे कोई उत्तर नहीं लिखा होता था. और कई बार लिख दिया जाता था कि हम ऐसी रचनाओं का प्रयोग नहीं करते. कई बार तो वापस मिली रचना पर एक लाल पेन से क्रोस का निशान बनाया गया होता था. गोया किसी स्टुडेंट कि कॉपी पर लगा टीचर का निशान हो. अगर इस लाल निशान कि गुडवत्ता जाँच ठीक रही होती. तो आज हिंदी साहित्य की ये स्थिति कतई नहीं होती. ये बिंदु हम ही नहीं उठा रहे बल्कि जोड़ तोड़ में अपरिपक्व तमाम वरिष्ठ साहित्यकार भी कई प्रशिद्ध पत्रिकाओं के संपादकों पर उठाते रहे हैं. पत्रिकाओं में किसी लेखकीय गुट का प्रभाव होना या चमचागिरी का प्रभाव होना कोई नयी बात नहीं है. विशेषकर साहित्य पत्रिकाओं में. कविता भेजने में पच्चीस रुपये खर्च होते थे क्योकि इतनी मेहनत से लिखी गयी कविता को साधारण डाक से भेजने का मन नहीं होता था. पारिश्रमिक मिलना तो दूर की बात कई बार तो ऐसा भी होता था कि हमारी कविता कही छप जाती थी और हमें पत्रिका की प्रति तक नहीं भेजी जाती थी. कई बार प्रशंशा में आये पत्रों से पता लगता था कि फलां पत्रिका के फलां अंक में मेरी कोई रचना गलती से छप गयी है.
हिंदी पर ब्लॉग जगत द्वारा किये जा रहे एहसान के बारे में यही कहना चाहूँगा कि अगर कभी ये नौबत आई कि हिंदी का इतिहास लिखा गया तो उसमे ब्लोगिंग द्वारा हुई इस क्रांति के बारे में अवश्य लिखा जायेगा. आज बच्चा बच्चा चेतन भगत, सलमान रश्दी और शोभा डे के बारे में जनता है. फिर वो हिंदी के एक समकालीन लेखक का नाम क्यों नहीं बता पाता. आज जब लोग हिंदी बोलने में शर्म महसूस करते हैं तो हिंदी में लिखना और उस पर अपना समय देना निश्चित रूप से माँ भारती कि आराधना ही है. यहाँ हर व्यक्ति केवल तारीफ के लिए नहीं लिख रहा. कई ऐसे भी लोग हैं जो अपने जीवन से परेशान हैं और उनके पास कोई नहीं जिससे वो अपनी बातें शेयर कर सकें. इसलिए वो ब्लॉग का प्रयोग करते हैं. इस तरह वो अपने मन की बात कहते हैं, कुछ लोगों से शेयर करते हैं. और कई बार कुछ अच्छे दोस्त भी बनाते हैं. फिर हर व्यक्ति परफेक्ट नहीं होता क्योकि वो प्रोफेसनल लेखक नहीं है वो तो बस अपने मन कि बात बाटना चाहता है.
अब बात आती है कॉमेंट्स की तो ये ही एक तरीका है लोगों के पास आपस में जुड़ने का. एक दुसरे का ब्लॉग पर कॉमेंट्स देकर उन्हें अपने ब्लॉग पर खीचना और इस तरह अभिव्यक्ति के अधिकार का प्रयोग करना. किन्तु दुःख की बात है कि कई बार लोग अपने ब्लॉग पर ट्रैफिक जुटाने के लिए कुछ अतिरिक्त प्रोफेसनल अंदाज़ अपना लेते हैं. और कई पोस्ट पर एक से कमेन्ट चिपका देते हैं. और जैसा कि अपने कहा है उनके कॉमेंट्स देखकर सर पीट डालने का मन करता है. इससे यही बात निकल कर आती है कि इस तरह के कॉमेंट्स देना वाकई में हिंदी कि सेवा नहीं बल्कि अपमान है. किन्तु भूतनाथ जी ये तो वही बात हो गयी. कि भले लोग राजनीती में उतरते नहीं और नेताओं का गाली भी देते रहते हैं. हमें ये परंपरा ब्लॉग जगत से हटानी होगी. हमें सच लिखना सीखना होगा. यदि कोई गलती कर रहा है तो उसे बताना पड़ेगा. उसकी गलतियाँ गिनानी ही होंगी. उम्दा के स्थान पर घटिया लिखने की भी शुरुआत करनी होगी. बजाय अपनी अपनी बीन बजाने के एक संवाद श्रंखला बनानी होगी. हमें कमियां बतानी होंगी और सुधार के विकल्प भी. हम निजी ब्लोगों के बारे में नहीं जानते किन्तु अपने इस ग्रुप ब्लॉग से हमें कई बार कई रचनाएँ इस लिए हटानी भी पड़ी हैं. क्योकि वो एक निश्चित मापदंड से काफी निम्न स्तर की थीं. हम अपने ब्लॉग के गुडवत्ता स्तर को लेकर बहुत गंभीर हैं और आगंतुकों से भी आग्रह करते हैं कि हमारे ब्लॉग कि प्रविष्टियों का अपनी रटी रटाई टिप्पड़ियों से स्वागत न करें. लेख और कविताओं को पढ़ें और उन पर निष्पक्ष राय दें. और भूतनाथ जी चूंकि अपने ही ये बात उठाई है तो उसकी कार्य परिणिति कमसे काम आपको तो करनी ही चाहिए. हम अपने और दुसरे सभी ब्लोग्स पर भी आपके आलोचना पूर्ण कॉमेंट्स का इंतज़ार करेंगे.
किन्तु हमारा लक्ष्य इंडियन आइडल की तरह देश कि आवाज़ या देश की कलम खोजना नहीं बल्कि लोगों को हिंदी में लिखने और पढने के लिए प्रेरित करना ही है. हम कलम के शिल्प की बजाये विचारों कि गंभीरता पर ही जोर देना चाहेंगे और चाहेंगे कि अधिक से अधिक मुद्दों पर हम शिद्दत से विचार करें और जिस तरह मीडिया और नेता हमें देश को दिखा रहे हैं उससे बढ़कर भी देखें अपनी राय भी कायम करें. जहा तक साहित्य की बात है हम चाहते हैं कि ज्यादा से ज्यादा संवाद हो और लोगों की लेखनी में अधिक से अधिक सुधार हो. जिससे हिंदी साहित्य हमारे बाद आने वाली पीढी तक भी सकुशल पहुच सके.
किन्तु हमारा लक्ष्य इंडियन आइडल की तरह देश कि आवाज़ या देश की कलम खोजना नहीं बल्कि लोगों को हिंदी में लिखने और पढने के लिए प्रेरित करना ही है. हम कलम के शिल्प की बजाये विचारों कि गंभीरता पर ही जोर देना चाहेंगे और चाहेंगे कि अधिक से अधिक मुद्दों पर हम शिद्दत से विचार करें और जिस तरह मीडिया और नेता हमें देश को दिखा रहे हैं उससे बढ़कर भी देखें अपनी राय भी कायम करें. जहा तक साहित्य की बात है हम चाहते हैं कि ज्यादा से ज्यादा संवाद हो और लोगों की लेखनी में अधिक से अधिक सुधार हो. जिससे हिंदी साहित्य हमारे बाद आने वाली पीढी तक भी सकुशल पहुच सके.
अंत में चाहूँगा कि बात निकली है तो दूर तलक जाये.... इन रेट रटाये कॉमेंट्स में सुधार हो. और ये गिव एंड टेक पालिसी आउट ऑफ़ प्रेक्टिस हो. क्योकि ऐसे प्रोफेसनल अंदाज़ से की गयी तारीफ से तो सोच समझकर की गयी आलोचना लाख गुना बेहतर है. और अगर हम सही समय पर न चेते तो हम वाकई में उम्दा और घटिया के बीच का फर्क भूल जायेगे. भूतनाथ जी को एक बार फिर ब्लॉग आलोचना की ये नयी और बहुत महत्वपूर्ण विधा शुरू करने के लिए समूचे ब्लॉग जगत की ओर से धन्यवाद....!