समाधान भी एक समस्या है
बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जायेगी....बातों से बातें निकलती हैं.कभी-कभी हम एक बात बोल जाते हैं....और जब सामने वाला अपनी बात रखता है तो अगर हम वाकई इमानदार हैं तो अवश्य ही हमें यह लगता है की अरे इस तरह तो मैंने सोचा ही नहीं था...अगर अब हम सामने वाले की बात के मद्देनज़र अपनी बात का आकलन करते हैं तब हम पाते हैं कि हाँ बेशक मेरी बातों में कुछ सच्चाई है मगर यह भी है कि मुझसे इस बात का यह पक्ष छूट रहा था...और समाधान मिलता सा प्रतीत होता है, फिर भी समाधान इतना आसान नहीं होता...
पत्र-पत्रिकाओं के युग की अपनी खामियां-कमजोरियां थीं....मगर यह बात भी है कि अपनी व्यस्त दिनचर्या में हम चाह कर भी भला कितनी किताबें खरीद पाते थे,और यहाँ वहां आखिर कितना साहित्य पढ़ पाते थे(मैंने तो पढ़ा-पढ़ा और खूब पढ़ा है)और उस पर अगर प्रतिक्रिया देना चाहते तो कितनी चीज़ों पर प्रतिक्रिया दे पाते थे....और यह भी कि अगर प्रतिक्रिया लिखने बैठ ही जाते थे....तो कितने से कितने पेजों की हो जाया करती थी....??तो असल बात यह है कि या तो हम प्रतिक्रिया ही ना दें मगर अगर दें....तो ऐसी दें कि लगे कि हाँ भई दी.....उससे कुछ हमको हुआ....हमारे अन्दर कुछ घटा...और यह भी कि सचमुच ही हमने उसे आद्योपांत पढ़ा....अब एक और महत्वपूर्ण बात कि साहित्य की किताबें तो हम एक-आध या दो चार ले आकर उसे आधा या पूरा पढ़ भी लेते थे....और किसी चीज़ के दिल पर कुछ ज्यादा ही "लग"जाने पर एक-आध पन्ना रंग कर कभी-कभार भेज भी दिया करते थे....लेकिन पत्रिका बेचारी साठ-अस्सी-सौ पन्नों की....और आने वाली सामग्री पांच-सौ पन्नों की....सम्पादक आखिर करे तो क्या करे...और तिस पर भी कुछ चाहने वालों पर या किहीं लोगों के किन्हीं अहसानों का बदला चुकाने की कीमत अदा करने के लिए उसकी "रचना"को भी स-सम्मान छापना होता था...अब क्या किया जाए....अब पत्रिका भी निकालनी है....और साधन भी नहीं है....और जिसके पास साधन है उसकी इस प्रकार की शर्तें हैं.....या तो उसकी शर्तें मानो....या जाओ भाड़ में....और भाड़ में ना जाने के एवज में यह शुभ-कार्य संपन्न हो जाया करता था....है....शायद रहेगा भी ...लेकिन इस मुफ्त के ब्लागिंग के समय में हज़ारो-हज़ार ब्लॉग.....तरह-तरह की प्रकृति....तरह की बातें....आदमी चाह कर भी सब पर तो नहीं जा सकता....तो कम से कम इएना तो हो सकता है कि वो अपनी पसंद के जिन ब्लॉगों पर जाता जाता है...उनपर सच्ची-सही-खरी और महत्वपूर्ण टिपण्णी करे....मैंने ऐसा किया है और करता भी रहूंगा....और एक बात बताऊँ....आपको हैरानी होगी....मेरी समालोचना से,जैसे कोई गा रहा है तो उसे सूर ठीक करने....कोई तथ्यात्मक भूल कर रहा है तो उसे ठीक करने....किसी की पंक्तियाँ अटपटी हैं तो उसे ठीक करके बताने(बाकायदा ठीक करके देने)....कोई बिलकुल ही एकरस लिख रहा है तो उसे एकरसता को ज़रा तोड़ने... और इस प्रकार के काम मैंने किये....करता रहूंगा.....मगर इसका नतीजा आप जानेंगे तो हैरान होंगे.....उनमें से अनेक लोगों ने मेरे ब्लॉग पर आना ही छोड़ दिया....नियमित रूप से मेरे ब्लॉग पर आने वाले(क्यूंकि मैं नियमित रूप से नयी चीज़ें लिखता रहता था,रोज कई चीज़ें लिख सकता हूँ)लोगों में ऐसे कुछ लोगों ने मेरे ब्लॉग पर आना महज इसलिए छोड़ दिया....कि मैंने उन्हें कुछ बिनमांगी टिप-मशवरे(यानी समालोचना भाई)दे दिए थे......!!
इन सबसे अपन को कोई फर्क नहीं पड़ता क्यूंकि अपन दिल से भी सच में भूत ही हैं....ना काहू से दोस्ती,ना काहू से बैर....!!अलबता सामने वाले का पता चल जाता है कि वो कितने पानी में है.....अपन जो करते रहें हैं....वही करेंगे....उसके सिवा कुछ नहीं करेंगे.....तो भाईयों....सब जगह तो सब जा नहीं पाते हैं.....मगर जिस जगह पर भी जाएँ.....वहां कम-अज-कम अपनी सार्थक उपस्थिति तो दर्ज कराएं.....और एक बात और यह कि अपने समस्त चाहने वालों....समझने वालों...पढने वालों को समय-समय पर दुसरे महत्वपूर्ण ब्लॉगों के बारे में भी बताएं,जिन्हें हमने तो जाना है....और साठ ही हम यह चाहेगे कि हमारा मित्र भी जान ले....किन्तु किसी भी हालत में किसी गलत साहित्य को प्रश्रय नहीं दें....इससे ब्लॉग का तो भला होगा ही....हरा भी भला होगा....और अंततः हिंदी का भी भला ही होगा.....!
बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जायेगी....बातों से बातें निकलती हैं.कभी-कभी हम एक बात बोल जाते हैं....और जब सामने वाला अपनी बात रखता है तो अगर हम वाकई इमानदार हैं तो अवश्य ही हमें यह लगता है की अरे इस तरह तो मैंने सोचा ही नहीं था...अगर अब हम सामने वाले की बात के मद्देनज़र अपनी बात का आकलन करते हैं तब हम पाते हैं कि हाँ बेशक मेरी बातों में कुछ सच्चाई है मगर यह भी है कि मुझसे इस बात का यह पक्ष छूट रहा था...और समाधान मिलता सा प्रतीत होता है, फिर भी समाधान इतना आसान नहीं होता...
पत्र-पत्रिकाओं के युग की अपनी खामियां-कमजोरियां थीं....मगर यह बात भी है कि अपनी व्यस्त दिनचर्या में हम चाह कर भी भला कितनी किताबें खरीद पाते थे,और यहाँ वहां आखिर कितना साहित्य पढ़ पाते थे(मैंने तो पढ़ा-पढ़ा और खूब पढ़ा है)और उस पर अगर प्रतिक्रिया देना चाहते तो कितनी चीज़ों पर प्रतिक्रिया दे पाते थे....और यह भी कि अगर प्रतिक्रिया लिखने बैठ ही जाते थे....तो कितने से कितने पेजों की हो जाया करती थी....??तो असल बात यह है कि या तो हम प्रतिक्रिया ही ना दें मगर अगर दें....तो ऐसी दें कि लगे कि हाँ भई दी.....उससे कुछ हमको हुआ....हमारे अन्दर कुछ घटा...और यह भी कि सचमुच ही हमने उसे आद्योपांत पढ़ा....अब एक और महत्वपूर्ण बात कि साहित्य की किताबें तो हम एक-आध या दो चार ले आकर उसे आधा या पूरा पढ़ भी लेते थे....और किसी चीज़ के दिल पर कुछ ज्यादा ही "लग"जाने पर एक-आध पन्ना रंग कर कभी-कभार भेज भी दिया करते थे....लेकिन पत्रिका बेचारी साठ-अस्सी-सौ पन्नों की....और आने वाली सामग्री पांच-सौ पन्नों की....सम्पादक आखिर करे तो क्या करे...और तिस पर भी कुछ चाहने वालों पर या किहीं लोगों के किन्हीं अहसानों का बदला चुकाने की कीमत अदा करने के लिए उसकी "रचना"को भी स-सम्मान छापना होता था...अब क्या किया जाए....अब पत्रिका भी निकालनी है....और साधन भी नहीं है....और जिसके पास साधन है उसकी इस प्रकार की शर्तें हैं.....या तो उसकी शर्तें मानो....या जाओ भाड़ में....और भाड़ में ना जाने के एवज में यह शुभ-कार्य संपन्न हो जाया करता था....है....शायद रहेगा भी ...लेकिन इस मुफ्त के ब्लागिंग के समय में हज़ारो-हज़ार ब्लॉग.....तरह-तरह की प्रकृति....तरह की बातें....आदमी चाह कर भी सब पर तो नहीं जा सकता....तो कम से कम इएना तो हो सकता है कि वो अपनी पसंद के जिन ब्लॉगों पर जाता जाता है...उनपर सच्ची-सही-खरी और महत्वपूर्ण टिपण्णी करे....मैंने ऐसा किया है और करता भी रहूंगा....और एक बात बताऊँ....आपको हैरानी होगी....मेरी समालोचना से,जैसे कोई गा रहा है तो उसे सूर ठीक करने....कोई तथ्यात्मक भूल कर रहा है तो उसे ठीक करने....किसी की पंक्तियाँ अटपटी हैं तो उसे ठीक करके बताने(बाकायदा ठीक करके देने)....कोई बिलकुल ही एकरस लिख रहा है तो उसे एकरसता को ज़रा तोड़ने... और इस प्रकार के काम मैंने किये....करता रहूंगा.....मगर इसका नतीजा आप जानेंगे तो हैरान होंगे.....उनमें से अनेक लोगों ने मेरे ब्लॉग पर आना ही छोड़ दिया....नियमित रूप से मेरे ब्लॉग पर आने वाले(क्यूंकि मैं नियमित रूप से नयी चीज़ें लिखता रहता था,रोज कई चीज़ें लिख सकता हूँ)लोगों में ऐसे कुछ लोगों ने मेरे ब्लॉग पर आना महज इसलिए छोड़ दिया....कि मैंने उन्हें कुछ बिनमांगी टिप-मशवरे(यानी समालोचना भाई)दे दिए थे......!!
इन सबसे अपन को कोई फर्क नहीं पड़ता क्यूंकि अपन दिल से भी सच में भूत ही हैं....ना काहू से दोस्ती,ना काहू से बैर....!!अलबता सामने वाले का पता चल जाता है कि वो कितने पानी में है.....अपन जो करते रहें हैं....वही करेंगे....उसके सिवा कुछ नहीं करेंगे.....तो भाईयों....सब जगह तो सब जा नहीं पाते हैं.....मगर जिस जगह पर भी जाएँ.....वहां कम-अज-कम अपनी सार्थक उपस्थिति तो दर्ज कराएं.....और एक बात और यह कि अपने समस्त चाहने वालों....समझने वालों...पढने वालों को समय-समय पर दुसरे महत्वपूर्ण ब्लॉगों के बारे में भी बताएं,जिन्हें हमने तो जाना है....और साठ ही हम यह चाहेगे कि हमारा मित्र भी जान ले....किन्तु किसी भी हालत में किसी गलत साहित्य को प्रश्रय नहीं दें....इससे ब्लॉग का तो भला होगा ही....हरा भी भला होगा....और अंततः हिंदी का भी भला ही होगा.....!