कल हमारी आदरणीय रेल मंत्री महोदया ने अपने जाने माने तेज़ तर्रार अंदाज़ में रेल बज़ट पेश किया. एक बार फिर भारत के सबसे बड़े सरकारी उपक्रम की और से ढेर सारी नयी घोषणाएं की गयीं, बड़ी बड़ी बातें हुईं, ये भी कहा गया कि भारत का नहीं बंगाल का बज़ट है. जिन लोगों ने संसद में ये कहा उन्हें ममता जी ने आइना दिखा दिया, बेचारे अपनी सूरत देखकर चुप हो गए. जिन्होंने टीवी चैनल पर ये कहा, वे बेचारे अपने प्रोफेशन से मजबूर थे, आज फिर उन्हें ऐसी ही बातें दिन भर करनी हैं और कल फिर. आम आदमी वर्ग के जो लोग कल टीवी पर ये बात नहीं जान पाए थे उन्हें आज समाचार पत्रों ने ये सूचना दे दी कि ये बंगाल का बज़ट है. लेकिन इस आम आदमी वर्ग को इसमें कुछ ख़ास नहीं लगा, क्योकि उन्हें ऐसा लगने से कोई लाभ नहीं है. न तो उन्हें कोई मीडिया संस्थान ऐसा करने के पैसे देने वाला है और न ही उन्हें इस मुद्दे पर अपने चुनाव क्षेत्र में वोट मांगने हैं. उसे पता है कि ऐसा ही होता है. ये तो विधि का विधान है (भगवान और प्रकृति वाली विधी नहीं, २६ जनवरी १९५० वाली विधि). जो भी मंत्री होता है ऐसा ही करता है, अब इसमें ऐसा क्या है जिस पर आश्चर्य किया जाये. कोई आपको एक ही चुटकुला रोज़ सुनाये, आप कितने दिन तक हसेंगे. एक दिन-दो दिन-तीन दिन, फिर वो चुटकुला आपको एक कहानी लगने लगेगा. एक सच्चाई लगने लगेगा. वही हालत आम आदमी की है, बेचारा कहा तक ताज्जुब करे. सुनने में आया है कि उत्तर प्रदेश के कुछ कांग्रेस सासदों ने भी ममता बेन का घेराव किया था, पर सोनिया जी के समझाने पर शांत हो गए. उन्हें शायद उसी गठबंधन धर्म का वास्ता दिया गया होगा, जिसके प्रमुख सिद्धांतों के बारे में कुछ दिन पूर्व मनमोहन जी ने इस धर्मप्रधान देश की मीडिया को बताया था. धर्मप्रधान इसलिए कह रहा हूँ क्योकि भारत में जन्म से लेकर मृत्यु तक और समाज से लेकर राजनीती तक हर बात का आधार धर्म ही है. कुछ लोगों का मानना है की भारत अब धर्मप्रधान देश नहीं है, अब भारत जातिप्रधान देश बन गया है. कुछ लोग इन दोनों विचारों से ही इत्तेफाक नहीं रखते, उनका कहना है की भारत पहले कृषि प्रधान देश था और अब भ्रस्टाचार प्रधान देश बन गया है. आने वाले समय में शायद ये कहा जायेगा की भारत एक गठबंधन प्रधान देश है, और अगर विपक्ष के विचारों के अनुसार परिभाषाएं गढ़ी गयीं तो यहाँ तक कहा जा सकता है की भारत एक कमजोरी प्रधान देश है. अब ये भारत का और समस्त भारतीयों का भाग्य ही तय कर सकता है की भारत के बारे में इनमे से कौन सी मान्यता प्रचलित होने वाली है.
नेहरू जी ने डिस्कवरी ऑफ़ इण्डिया में लिखा था कि भारत में अनेकता में एकता है. मुझे लगता है उन्होंने ये बात संसद भवन के बारे में लिखी थी. रेल मंत्री चाहे कोलकाता का हो या बिहार का, उन दोनों की आत्मा एक ही जैसी होगी, प्रधानमत्री चाहे यूंपीए का हो या एनडीए का, गठबंधन धर्म से मजबूर ही होगा और सांसद चाहे हिंदुस्तान के किसी भी कोने का हो, किसी भी धर्म का हो, किसी भी जाती का हो, किसी भी लिंग का हो, सोलह आने भ्रस्त ही होगा. ये सब देखकर मेरे मन में नेहरू जी के बारे में सम्मान की मात्र और बढ़ गयी है. वो अच्छे राजनेता ही नहीं, महान भविष्यवक्ता भी थे. वैसे इस पूरे प्रकरण का उदहारण लेकर मैं भारतीय संस्कृति के बारे में एक और सकारात्मक अवधारना का सत्यापन कर सकता हूँ कि भारत कि संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता है सहिष्णुता (ये भी बचपन में पढ़ा था, अपने नहीं पढ़ा तो फिर ये भारतीय शिक्षाविदों की कोई राजनीतिक चाल होगी). हम भारतीय बड़े से बड़े पाप को भी नज़रंदाज़ कर सकते हैं. बड़े से बड़े भ्रस्टाचार को सहन कर सकते हैं और किसी भी माहौल में हैप्पी एंडिंग फिल्में देखकर खुश रह सकते हैं. अगर हम ऐसे न होते तो सोचिये हम भी मिस्र वासियों की तरह सड़कों पर मारे-मारे घूम रहे होते, वो भी बिना किसी लाभ के. फिर नौकरी कैसे होती, रेल बज़ट कैसे पढ़ा जाता. और विश्वकप कैसे होता हिंदुस्तान में और अरबों देशप्रेमी हिन्दुस्तानियों के जीवन का सबसे बड़ा ख्वाब भला कैसे पूरा हो पाता. तो चलिए हटाते हैं ये सारा झमेला और भारत के वर्ल्ड कप जीतने की दुआ करते हैं. आपको अजीब तो नहीं लगा अचानक वर्ल्ड कप जीतने की दुआ करना, अरे ये भी भारतीय संस्कृति की एक विशेषता है, मैं तो कहता हूँ सबसे बड़ी विशेषता.

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