कहाँ पहूँचा अब देश?

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  • Tuesday, July 6, 2010
  • कई दिन हुए मैंने इस ब्लॉग में कुच्छ लिखा नहीं है. मैं मेरी पेंटिंग प्रदर्शन में व्यस्त था. मैं सोचता हूँ अब और लिखने को क्या रखा है इस देश में? लिख चुके, सारे पन्ने ख़त्म हो गए....पर हुआ कुच्छ नहीं. मैं और हम सब लोग लिख रहे है इसी प्रतीक्षा में कि कहीं से दिखेगी रोशनी की एक किरण. हरेक महंगाई से बहुत परेशान है. हम कह रहे है कि थोड़े ही सालों में हमारा देश विकास वाले देश की तरह हो जाएगा और हम पहूँचेंगे चाँद पर तारे तोड़ने. पर हम अभी पहूँच गए है कहाँ? कुच्छ लोग धनिक राष्ट्र के नागरीकों की तरह हो गए और सोचने भी लगे. कौन सोचते है हमारे देश के भूखे - नंगे नागरिक के बारे में?

    मैंने पढ़ा था कि हमारा देश सभी के लिए है - समाजवाद पर आधारित यानी कि socialist देश. सभी लोग यहाँ सामान है. इस देश के बारें में पढ़ - सुनकर मेरे अन्दर एक सुकून, रोमांच और खुशी से आँख भर आता था. पूंजीवादी देशों की तरह धनिकों का बोलबाला यहाँ नहीं था. communist राष्ट्रों की तरह कामगारों को ही स्थान नहीं था. संविधान के तहत सभी का ख्याल होता था. तब आप कहने लगेंगे कि क्या अब वो सब नहीं है? हाँ.... संविधान है... नाम के लिए समाजवाद है उसके नाम पर हज़ारों दल है और उसीसे जीनेवाले मोटे नेतालोग है.... स्वतंत्रता संग्राम की यादें है... आजादी देने के लिए मरनेवाले सच्चे नेताओं की प्रतिमाएं (मूर्तियाँ) है..... नोटों में उनकी हसने वाली छवि है... असंख्यों करोड़ों नागरिक है जिसको एक ही काम करने के लिए विधित किया है... वोट करना. फिर इस्वर ही मालिक है (इश्वरो रक्षतु).

    अंग्रेजों के चले जाने तक था क्या हमारा देशप्रेम? फिर शुरू हुआ आपसी रंजिश इत्यादी. देश को स्वर्गसे बेहतर बनाने चले थे, अब कहाँ पहूँचा हमारा देश? यहाँ अब साधारण नागरिक का हाल क्या है इसके बारें में कोई सोचता है....कि नहीं? सांसद गण उनकी आमदनी के बारे में चर्चा करने का स्थल बनाया है संसद को. सभी चीजों के दाम बढ गए है... या बढ रहा है अब भी... पिच्छले हफ्ते के दाम में आज आधी तरकारी मिलेगी.

    इस देश के हालात के बारे में ज़्यादा कुच्छ नहीं बोलना चाहूँगा. लोग समझेंगे किसी पार्टी का आदमी है. मेरे ख्याल से सभी पार्टियां एक ही वास्तु से बनायी हुई अनेक शकलें है जिसमें राष्ट्र प्रेम नामक चीज़ ही नहीं है. राष्ट्र प्रेम क्या है? जब एक आदमी भूखा है तो मुझसे वह भूख महसूस होने की ताकत होनी चाहिए. तभी मैं एक सच्चा आदमी और नागरिक बनेगा. तब नेता का लक्षण क्या होना चाहिए यह आपही स्वयं समझ सकते है.

    आप लोगों से मेरा प्रश्न यह है कि इस दुनिया में क्या चीज़ है जो मुफ्त में हमें मिली और हमें इसका पता ही नही? आप सोचकर एक दो के बारें में कहना शुरू होंगे ज़रूर. पर देखें तो ईश्वर (जो ईश्वर को नहीं मानता हो तो - कुदरत भी कह सकते है)ने इस धरती पे सब कुच्छ मुफ्त में ही दिया है. मैं निश्चिंत होकर श्वास ले सकता हूँ जिसे किसी संविधान के तहत कोई बंद नहीं कर सकता. ह्रदय धड़ रहा है .... विकार कुच्छ भी हो सकते है.... मन से कहीं भी जा सकता हूँ... मैं कुच्छ भी विचार सकता हूँ. सभी ईश्वर ने दिया है. सभी चीज़ सभी के लिए है. ईश्वर का या कुदरत का है ये सब. किसी को कुच्छ भी हक नहीं कि अमुक लोगों को ही सबकुच्छ मिले. सूर्य सभी जगह चमक रहा है. किसी को हक नहीं कि उसको ढकें और उसकी किरणों को पैसे लेकर मंडियों बेचें.

    मेरे आँगन में आम का पेड़ यकायक उग गया... फूल आये फिर गुटली और फिर आम... मैंने सिर्फ कुवें में से पानी लाकर छिडका था तो भी वह कुवां किसी और ने कुद्वाया था. मैं ने गर्व से कहा यह पेड़ मेरा है और आम एक एक करके बेचने लगा. एक भी आम मैंने नहीं खाया. यदी आसपास लोगों को भी बुलाकर साथ बिठाकर उनके बीच बैठकर उनके साथ आम खाता तो उसका स्वाद कुच्छ और होता. आम का पेड़ नहीं कहता की यह मेरा आम है. पानी , धरती, सूर्य ... कोई इसका दायित्व भी नहीं लेता. पर मनुष्य सोचता है कि वही सभी का स्वामी है. यहीं उसकी भूल है. जो socialism है ये सब यहाँ से शुरू होता है.

    ज़्यादा नहीं लिखना चाहूँगा. ये सब हरेक को सोचने समझने की बातें है.

    जय हिंद.
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    दखलंदाज़ी जारी रहे..!