मै जन्मी तब एक कोयल का भी जन्म हुआ,
जन्म से ही थी वह काली कुरूप ,
सभी मानते थे उसे मेरा दूसरा स्वरुप,
जन्म से ही साथ रह,
एक रिश्ता सा बन गया था उससे.साथ समय व्यतीत कर ,
कोई धागा सा जुड़ गया था उससे.
माँ कहती है उसको देख,
मै रोते से मुस्काती थी ,
इतने छोटे होने पर भी ,
मानो उसकी बात समझ में आती थी...
एक बटेरिया लेकिन उसपर नज़र गड़ा कर रखता था,
उसे दूर ले जाने के अथक प्रयास करता था...
विफलता ने उस बटेरिये कि मति भ्रष्ट कर दी एक दिन...
और आ कर उसने मेरी कोयल के पर ही काट दिए...
दर्द से तड़पती कोयल ने जो आवाज़ लगायी,
उसकी रक्षा करने को मेरी माँ दौड़ के आई.
जीवन तो बचा लिया था उसका,
पर पंख नहीं बच पाए थे...
दुःख में दिन बीत रहे थे....
समय चल रहा था अपनी चाल,
जल बिन मछली के समान था मेरी कोयल का हाल..
पर एक दिन इश्वर ने अपनी महिमा दिख लायी ,
और स्वयं सरस्वती देवी उसके गले उतर आई...
मेरी कोयल हम सब को मीठे गीत सुनाती थी,
उसकी मधुर आवाज़ हम सब का मन लुभाती थी.
लेकिन उसके स्वर नहीं,
उसका साहस था उसकी असली पहचान.
उस साहस के बल पर ही तो उसने जीने कि ली थी ठान.
अब वह कोयल रही नहीं...
पर उसकी यादें बाकी हैं. उसके साहस कि गाथा अब भी,
मेरे घर में गायी जाती हैं....