अगर वे 1928 की बजाय 1988 में पैदा होते, या अगर w.w.f. 1958 में शुरू हो गया होता तो दारा सिंह अरबपति हो गए होते। आइ पी एल में खेल कर करोड़ों बटोरने वाले बल्लेबाजों गेंदबाजों से कई गुना ज्यादा रुपया उनके पास होता। बिग बी और क्रिकेट के भगवान से भी अधिक महंगी कार उनके पास होती।
तब खली से भी बली वे होते।
Uday Prakash
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हमलोग बहुत बचपन में थे, जब वे मशहूर हो गए थे। उन दिनों 'ब्लिट्ज़' अखबार, जिसके संपादक आर के करंजीया थे, के आखिरी पेज़ पर अक्सर दारा सिंह के किस्से छपते थे। किंगकांग को फ्री स्टाइल कुश्ती में उन्होने 'काला-पंजा' नामक दांव लगा कर हराया था और उससे चैम्पियनशिप की बेल्ट छीन ली थी। एक बार कहीं से एक 'असली' दारा सिंह प्रकट हो गया था, जिसने इस 'नकली दारा सिंह' को चुनौती दी थी। उसका दावा था की बीच में वह कहीं चला गया था या किसी जेल में बंद था, उसका फायदा उठाकर ये वाला दारा सिंह नाम कमा रहा था। दोनों की कुश्ती देखने के लिए , पता नहीं किस शहर में, शायद मुंबई में, बहुत भीड़ उमड़ी थी और खूब टिकट बिके थे। ये बात 'ब्लिट्ज़' समेत कई उस समय के अखबारों में छपी थी। वो शायद नूरा कुश्ती का शुरूआती दौर था, जो आगे चल कर w.w.f. जैसे इवेंट में तब्दील हुआ। (बाद में किसी ने बताया की वो 'असली' दारा सिंह कोई और नहीं, उन्हीं का अपना छोटा भाई सरदारा सिंह रंधावा था, जो बाद में कई स्टंट फिल्मों में रंधावा के नाम से प्रसिद्ध हुआ। मुमताज़ के साथ दोनों भाइयों ने हीरो का रोल किया था।
रामानन्द सागर के रामायण के हनुमान ही नहीं , शायद किसी फिल्म में महाभारत के भीम भी वही बने थे, जिनका एक डायलाग अक्सर पंजाबी हिन्दी के उदाहरण के बतौर पेश किया जाता है - 'हे ए भगवाण ... तूँ मेरी केसी परीक्सा ले रहे हो...?' जैसे हिन्दी आलोचकों अध्यापकों की अपनी हिन्दी होती है, वैसे दारा सिंह की भी अपनी हिन्दी होती थी... ।
पता नहीं उन्हें हनुमान ही क्यों बनाया जा रहा है। हो सकता है इसलिए... क्योंकि वे भाजपा द्वारा राज्यसभा के सांसद बनाए गए थे। और आज के माहौल में 2014 के चुनावों को ध्यान में रखते हुए यही इमेज खास फायदा पहुंचा सकता है। वरना तो अंडे और संडे मंडे वाला विज्ञापन भी कम लोकप्रिय नहीं हुआ था। अंडे को शाकाहारी और लाभकारी बनाने के प्रचार में दारा सिंह की भी बड़ी भूमिका थी।
उनका जाना उदास करता है। यह भी जानना कम उदास नहीं करता कि जिस पंजाब में हरित क्रान्ति हुई और जहां की खेती ने भारत को अनाज के मामले में अपने पैरों पर खड़ा किया, उसी पंजाब में खेती और पहलवानी छोड कर उन्हें मुंबई जाना पड़ा, जो भारत की व्यावसायिक राजधानी कही जाती है। वहाँ जाकर उन्होने धन कमाया, लेकिन 'असली' दारा सिंह की असली कुश्ती के जरिये नहीं, बल्कि असली के 'अभिनय' के जरिये.... ।
छोटे या बड़े पर्दे पर जो भी दिखता है, वह 'नकल' और 'नकली' ही होता है। अगर वे इन पर्दों पर न आते तो क्या इतने मशहूर हो सकते थे। आखिर भिंड-मुरैना के चैंपियन एथलीट पानसिंह तोमर को भी लोगों ने तभी जाना जब वह बड़े पर्दे पर असली पान सिंह की नकल बन कर आया।
हमारी पीढ़ी के लोग भाग्यशाली हैं कि उन्होने दारा सिंह को तब से जाना था, जब उनमें बहुत कुछ असल भी था।
(Uday Prakash is an eminent scholar, and a prolific Hindi poet, journalist, translator and short story writer.)