मैं वहीं मिलूंगी 
जहाँ हम इमली के बीजों से चौघडी खेला करते थे ..
जहाँ मैं बेर तोडा करती थी और तुम अमरुद की डाल पे बैठ के मुझे देखा करते थे..
जहाँ मैं चम्पक की कहानिया पढ़ के तुम्हे सुनती थी और तुम सुन के ठहाके मारा करते थे...
जहाँ हम बैठ के सोचा करते थे की कंचों में तारे क्यूँ दिखाई देते हैं...
मैं वही मिलूंगी
उसी नीले कुँए के पास ...
मैं वहीँ मिलूंगी
जहाँ मखनू अपनी कटी हुई पतंग के मंझे मांगने आ जाया करता था ..
जहाँ मैं परेता पकड़ा करती थी और तुम पतंग उड़ाया करते थे..
जहाँ काकी तुम्हारी भूगोल की कापी और बेलन ले कर आ जाया करती थी..
जहाँ शाम के कोहरे में हम मुह से धुआं निकाला करते थे..
मैं वहीँ मिलूंगी
उसी नीले कुँए के पास ...
मैं वहीँ मिलूंगी
जहाँ हर इतवार को जुलाहे चिलम पिया करते थे..
जहाँ हर मंगल को सरजू पगलिया ढोलक बजाया करती थी..
जहाँ मैं अपनी ओढ़नी और तुम अपनी कमीज़ पे बने फूलों के रंगों को तितलियों के पंखों में ढूँढा करते थे...
जहाँ हरहु साऊ के कबूतर कुँए के चबूतरे पे पड़े गेहूं चुगते थे..
मैं वहीँ मिलूंगी
उसी नीले कुँए के पास ..
मैं वहीँ मिलूंगी
जहाँ एक बार तुम बिना बताये मीना के साथ बेर तोड़ने चले गए थे..
जहाँ मैंने इस बात पे घंटों आँखें सुजायीं थी..
जहाँ तुमने मेरी कापी में गुलमोहर के फूल बनाये थे..
जहाँ सरजू पगलिया ने बड़े लाड से हमें कच्ची कैरियां दी थीं..
मैं वहीँ मिलूंगी
उसी नीले कुँए के पास ...
मैं वहीँ मिलूंगी
जहाँ दूर से रेलगाड़ी दिखाई देती थी और हम उसे देख के खुश हो जाया करते थे ..
जहाँ नीले कुँए में झाँक कर हम दोनों एक दूसरे का नाम जोर जोर से पुकारा करते थे ..
जहाँ मैंने तुमसे कहा था अब माँ मुझे सजने सवरने को कहती है..
जहाँ तुमने मुझे पानी वाले रंग से बिंदिया लगायी थी..
मैं वहीँ मिलूंगी
उसी नीले कुँए के पास ...
मैं वहीँ मिलूंगी
जहाँ शायद आज भी उस कुँए की दीवारों में हमारे नाम गूंजते होंगे..
जहाँ आज कोई बूढी पगलिया दिन में अमरुद बेचती होगी
जहाँ इमली के बीज अब पेड़ बन गए होंगे..
जहाँ काकी मखनू के लड़के को हमारी कहानियां सुनती होगी....
मैं वहीँ मिलूंगी
उसी नीले कुँए के पास....
इमली और कंचे लाना न भूलना....
Gargi Mishra
gargi@dakhalandazi.co.in
जहाँ हम इमली के बीजों से चौघडी खेला करते थे ..
जहाँ मैं बेर तोडा करती थी और तुम अमरुद की डाल पे बैठ के मुझे देखा करते थे..
जहाँ मैं चम्पक की कहानिया पढ़ के तुम्हे सुनती थी और तुम सुन के ठहाके मारा करते थे...
जहाँ हम बैठ के सोचा करते थे की कंचों में तारे क्यूँ दिखाई देते हैं...
मैं वही मिलूंगी
उसी नीले कुँए के पास ...
मैं वहीँ मिलूंगी
जहाँ मखनू अपनी कटी हुई पतंग के मंझे मांगने आ जाया करता था ..
जहाँ मैं परेता पकड़ा करती थी और तुम पतंग उड़ाया करते थे..
जहाँ काकी तुम्हारी भूगोल की कापी और बेलन ले कर आ जाया करती थी..
जहाँ शाम के कोहरे में हम मुह से धुआं निकाला करते थे..
मैं वहीँ मिलूंगी
उसी नीले कुँए के पास ...
मैं वहीँ मिलूंगी
जहाँ हर इतवार को जुलाहे चिलम पिया करते थे..
जहाँ हर मंगल को सरजू पगलिया ढोलक बजाया करती थी..
जहाँ मैं अपनी ओढ़नी और तुम अपनी कमीज़ पे बने फूलों के रंगों को तितलियों के पंखों में ढूँढा करते थे...
जहाँ हरहु साऊ के कबूतर कुँए के चबूतरे पे पड़े गेहूं चुगते थे..
मैं वहीँ मिलूंगी
उसी नीले कुँए के पास ..
मैं वहीँ मिलूंगी
जहाँ एक बार तुम बिना बताये मीना के साथ बेर तोड़ने चले गए थे..
जहाँ मैंने इस बात पे घंटों आँखें सुजायीं थी..
जहाँ तुमने मेरी कापी में गुलमोहर के फूल बनाये थे..
जहाँ सरजू पगलिया ने बड़े लाड से हमें कच्ची कैरियां दी थीं..
मैं वहीँ मिलूंगी
उसी नीले कुँए के पास ...
मैं वहीँ मिलूंगी
जहाँ दूर से रेलगाड़ी दिखाई देती थी और हम उसे देख के खुश हो जाया करते थे ..
जहाँ नीले कुँए में झाँक कर हम दोनों एक दूसरे का नाम जोर जोर से पुकारा करते थे ..
जहाँ मैंने तुमसे कहा था अब माँ मुझे सजने सवरने को कहती है..
जहाँ तुमने मुझे पानी वाले रंग से बिंदिया लगायी थी..
मैं वहीँ मिलूंगी
उसी नीले कुँए के पास ...
मैं वहीँ मिलूंगी
जहाँ शायद आज भी उस कुँए की दीवारों में हमारे नाम गूंजते होंगे..
जहाँ आज कोई बूढी पगलिया दिन में अमरुद बेचती होगी
जहाँ इमली के बीज अब पेड़ बन गए होंगे..
जहाँ काकी मखनू के लड़के को हमारी कहानियां सुनती होगी....
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