लोकपाल बिल: उतार चढ़ाव भरा इतिहास

Posted on
  • Thursday, August 18, 2011
  • लोकपाल शब्द, स्वीडेन के अम्बुड्समैन का भारतीय संस्करण है जिसका अर्थ है ‘जिससे शिकायत की जा सकती हो।‘ अत: अम्बुड्समैन वह अधिकारी है जिसकी नियुक्ति प्रशासन के विरुध्द शिकायतों की जांच करने हेतु की जाती है।

    L. K. Advani

    भारतीय संसद के इतिहास में, किसी अन्य विधेयक का इतिहास इतना उतार-चढ़ाव वाला नहीं रहा जितना कि लोकपाल विधेयक का है।

    लोकपाल शब्द, स्वीडेन के अम्बुड्समैन का भारतीय संस्करण है जिसका अर्थ है ‘जिससे शिकायत की जा सकती हो।‘ अत: अम्बुड्समैन वह अधिकारी है जिसकी नियुक्ति प्रशासन के विरुध्द शिकायतों की जांच करने हेतु की जाती है।

    सन् 1966 में तत्कालीन राष्ट्रपति डा. राधाकृष्णन ने प्रशासनिक सुधार आयोग गठित किया था। जिसके अध्यक्ष मोरारजी भाई देसाई थे। इसी आयोग ने लोकपाल गठित करने हेतु कानून बनाने का सुझाव दिया था।


    वर्तमान लोकसभा पंद्रहवीं लोकसभा है। इस किस्म का पहला विधेयक 43 वर्ष पूर्व चौथी लोकसभा में प्रस्तुत किया गया था। तब इसे लोकपाल और लोकायुक्त विधेयक, 1968 के रुप में वर्णित किया गया था।

    विधेयक को दोनों सदनों की संयुक्त समिति को भेजा गया और समिति की रिपोर्ट के आधार पर विधेयक को लोकसभा ने पारित किया। लेकिन जब विधेयक राज्यसभा में लम्बित था, तभी लोकसभा भंग हो गई और इसलिए विधेयक रद्द हो गया।

    पांचवीं लोकसभा में श्रीमती इंदिरा गांधी ने एक बार फिर इस इस विधेयक को प्रस्तुत किया। 6 वर्षों की लम्बी अवधि में यह-‘विचार किये जाने वाले‘ विधेयकों की श्रेणी में पड़ा रहा। सन् 1977 में लोकसभा भंग हो गई और विधेयक भी रद्द हो गया।

    1977 में मोरारजी भाई की सरकार में यह विधेयक लोकपाल विधेयक, 1977 के रुप में प्रस्तुत किया गया। विधेयक को संयुक्त समिति को भेजा गया जिसने जुलाई, 1978 में अपनी रिपोर्ट सौंप दी।

    जब विधेयक को लोकसभा में विचारार्थ लाना था तब लोकसभा स्थगित हो गई और बाद में भंग। अत: यह विधेयक भी समाप्त हो गया।

    1980 में गठित सातवीं लोकसभा में ऐसा कोई विधेयक पेश नहीं किया गया।

    1985 में, जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे तब लोकपाल विधेयक नए सिरे से प्रस्तुत किया गया । इसे पुन: संयुक्त समिति को सौंप दिया गया। उस समय मैं राज्यसभा में विपक्ष का नेता था।

    शुरु में ही मैंने बताया कि दो संयुक्त समितियां पहले ही गहराई से इस विधेयक का परीक्षण कर चुकी हैं। इस व्यापक काम को फिर से करने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन समिति ने अपने हिसाब से इसे नहीं माना।

    तीन वर्षों तक समिति ने शिमला से त्रिवेन्द्रम और पंजिम से पोर्ट ब्लयेर तक पूरे देश का दौरा किया । वास्तव में समिति ने 23 विभिन्न राज्यों तथा केन्द्र शासित प्रदेशों का दौरा किया।

    समिति का कार्यकाल कम से कम आठ बार बढाया गया और इसकी समाप्ति 15 नवम्बर, 1988 को तत्कालीन गृहराज्य मंत्री श्री चिदम्बरम ने समिति को सूचित किया कि सरकार ने इस विधेयक को वापस लेने का निर्णय किया है।


    संयुक्त समिति में विपक्ष के सभी सदस्यों - पी0 उपेन्द्र, अलादी अरुणा, के0पी0 उन्नीकृष्णन, जयपाल रेड्डी, सी0 माधव रेड्डी, जेनईल अबेदीन, इन्द्रजीत गुप्त, वीरेन्द्र वर्मा और मेरे हस्ताक्षरों से युक्त एक ‘असहमति नोट‘ संयुक्त रुप से प्रस्तुत किया गया, हमने उसमें दर्ज किया :

    आजतक लोकपाल विधेयक के अनेक प्रारुप प्रस्तुत किए जा चुके हैं, 1985 वाला विधेयक विषय वस्तु में नीरस और दायरे मे सर्वाधिक सीमितता से भरा है। अत: जब सरकार ने इसे दोनों सदनों की संयुक्त समिति को भेजने का निर्णय लिया तो हम आशान्वित हुए कि सरकार इस विधेयक की अनेक कमजोरियों को सुधारने के लिए खुले रुप से तैयार है।

    हम, बहुमत के इस विचार कि विधेयक को वापस ले लिया जाए से कड़ी असहमति व्यक्त करते हैं। जिसके चलते संयुक्त समिति की तीन वर्षों की लम्बी मेहनत व्यर्थ मे खर्चीली कार्रवाई सिध्द होगी। शुरुआत से ही हम इस विचार के थे कि जो विधेयक प्रस्तुत किया गया है, वह अपर्याप्त है। सरकार हमसे सहमत नहीं थी और उसके बाद उसने आगे बढ़ने का फैसला किया। और अब, तीन वर्षों के बाद, शायद यह इस निष्कर्ष पर पहुंची है कि यह न केवल अपर्याप्त है, अपितु यह इतना खराब भी है कि इसे सुधारा भी नहीं जा सकता।

    विधेयक की वर्तमान विसंगतियों के बावजूद लोकपाल से, मंत्रियों की ईमानदारी की जांच करने वाले के रुप में आाशा की जाती है। पिछले दो वर्षों में, उच्च पदों पर भ्रष्टाचार सार्वजनिक बहसों का जोशीला मुद्दा बन चुका है। राज्यों में लोकायुक्त के क्षेत्राधिकार के कामकाज का अध्ययन करके हमें पता चला कि अनेक राज्यों के मुख्यमंत्री लोकायुक्त के क्षेत्राधिकार में आते हैं: हमारा यह दृढ़ मत है कि प्रधानमंत्री का पद भी लोकपाल के क्षेत्राधिकार में लाया जाना चाहिए।

    यह अत्यन्त दु:ख का विषय है कि इस मुद्दे पर लोगों की चिंताओं और हमारी मांग के औचित्य की सराहना करने के बजाय सरकार का रुख इस विधेयक को ही तारपीडो करना तथा इसे वापस लेने की ओर बढ़ने वाला है; अत: संयुक्त समिति को जनता की नजरों में गिराना है। उच्च पदों पर बैठे लोगों के विरुध्द भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों के चलते सरकार की घबराहट को दर्शाता है तथा एक ऐसी संस्था का गठन करने से कतराने को भी जो उसके लिए चिंता का कारण बन सकती है। सरकार द्वारा अपने कुकर्मों पर पर्दा डालने के लिए के भौंडे सरकारी प्रयासों का हम समर्थन नहीं कर सकते। इसलिए यह असहमति वाला नोट प्रस्तुत है।

    1989 में राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस चुनाव हार गई। श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह भाजपा और वामपंथी दलों के बाहरी समर्थन से बनी गठबंधन सरकार के प्रधानमंत्री बने।


    1989 में इस सरकार द्वारा प्रस्तुत लोकपाल विधेयक में स्वाभाविक रुप से 1988 के संयुक्त असहमति नोट में दर्ज गैर- कांग्रेसी विचारों की अभिव्यक्ति देखने को मिली और प्रधानमंत्री को भी इसके दायरे में लाया गया।

    तत्पश्चात अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए सरकार द्वारा प्रस्तुत लोकपाल विधेयकों में भी प्रधानमंत्री को इसके दायरे में रखा गया।

    मुझे अच्छी तरह से याद है कि प्रधानमंत्री के रुप में अटलजी इस पर अडिग थे कि प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे के बाहर नहीं छोड़ा जाना चाहिए।

    (L. K. Advani is a veteran Indian politician and former president of Bhartiya Janta Party)
    Next previous
     
    Copyright (c) 2011दखलंदाज़ी
    दखलंदाज़ी जारी रहे..!