बात कुछ माह पहले की है |
ऑफिस से निकल कर घर जाने के लिए ऑटो में बैठा ही था की बगल वाली खाली सिट पर इक सज्जन मुस्कराते हुए धम्म से आ बैठे | बातचीत की शुरुवात उन्होंने ही की | दो-चार मिनट इधर-उधर की बातों के बाद प्रसंगवश चर्चा शुरू हो गयी, उसी पखवाड़े में कानपूर में हुए "वैश्य सम्मलेन" में हुयी कथित "गुप्ता पार्टी" की घोषणा पर |
(उल्लेखनीय है कि उक्त सम्मलेन में केंद्रीय कोयला राज्य मंत्री श्री प्रकाश जयसवाल से लेकर नवीन जिंदल, दैनिक जागरण के महेंद्र मोहन समेत देश के तमाम राजनेता-उद्योगपति मंचासीन थे, यानी यह कोई गली-मुहल्लों के चिरकुट नेताओं द्वारा आयोजित ऐरा-गैरा जातीय सम्मलेन नहीं था )
तो खैर इस घोषणा के संम्बंध में मेरे विरोधी विचार जानने के बाद महोदय सिरे से ही उखड गए, कहने लगे- अगर ठाकुर-बाभन जाती के आधार पर पार्टी बनायें तो देश सेवा और अगर दलितों - पिछड़ों ने पार्टी बना ली तो जातिवाद हो गया!!! ( पर वह ये भूल गए कि वैश्य भी ब्राम्हण और ठाकुरों कि तरह सवर्ण ही हैं , दलित या पिछड़े नहीं! ) वे आगे भी चालू रहे और माया-मुलायम-लालू जैसे नेताओं को जातिवादी राजनीती के संदर्भा में सदी के योग्यतम महापुरुषों का दर्जा दे डाला | किन्तु संभवता: उन्हें यह याद नहीं रहा कि योग्य होने और इक आअद्र्श नायक होने में फर्क होता है | अगर योग्यता ही सबकुछ होती तो तो अपने काले इतिहास के लिए जाने जाने वाले मुसोलिनी से लेकर लादेन और अफजल-कासब तक योग्यता में क्या किसी से कम हैं ?
करीब २० मिनट तक चली इस चर्चा में वे जातिवादी राजनीती और माया-मुलायम-लालू के समर्थन में बहुत कुछ कहते रहे, कुतर्क पर कुतर्क पेश करते रहे , पर मेरे तर्कों के सामने उनकी बोलती बंद होती रही | परन्तु इस सबके अंत में उन्होंने जो कुछ भी कहा वह सबसे अधिक भयावह था| और घ्रनास्पद भी |
ऑटो से उतर कर जाते हुए उन्होंने पूछा- कब से हो इस लाइन( पत्रकारिता) में?, १५ दिन ! मैंने बताया, तभी उन्होंने अपना वह अंतिम और भयावह वाक्य बोला - "और मुझे ३२ साल हो गए हैं पत्रकारिता करते हुए !!
सच में उनके इस वाक्य ने इस बार न सिर्फ मेरी बोलती बंद कर दी बल्कि बहुत कुछ सोचने पर भी विवश कर दिया , इक पत्रकार इस हद तक जातिवादी हो सकता है यह तो मैंने कभी सोचा ही नहीं था ,
यह और यह पहली बार नहीं था ,जब अपनी काली स्याही से पत्रकारिता के मुख पर कालिख पोत रहे तथाकथित पत्रकारों ( या कहें जातिवादियों ) से सामना हुआ हो , अपनी 6-७ महीनों कि पत्रकारिता कि छोटी सी अवधि में ही मीडिया में फ़ैल रहे इस जातिवाद को बार-बार देखने व समझने का मौका मिला है , इक बड़े अखबार में तो सिर्फ इस लिए मौका मिल रहा था कि दुर्भाग्यवश मैं इक कुलीन ब्राम्हण परिवार में जन्मा हूँ , दुर्भाग्यवश इसलिए कि इक पत्रकार के रूप में इन सबका सामना करने से अधिक दुर्भाग्यपूर्ण और क्या हो सकता है ?
वैसे भी मीडिया में परिवारवाद और जातिवाद की शिकायतें आम हैं , पता सबको है पर कुछ बोलने की हिम्मत किसी में भी नहीं! आख़िर हम्माम में सब ..... जो हैं |
पत्रकारिता तो मिशन हुआ करती थी उसे आज़ादी के बाद लोतंत्र के इक सजग प्रहरी की भूमिका दी गयीं थी , लोकतंत्र के चौथे स्तम्भा का दर्ज़ा दिया गया था, ताकि वह समाज के विभिन्न तबकों के मध्य सदियों से जनमानस में अपनी जड़ें गहरी कर चुकी रुढियों से समाज को मुक्त कर सके, जिससे इक आदर्श लोकतंत्र का लक्ष्य पूर्ण किया जा सके और ऐसा बिना पत्रकारिता के संभव नहीं था . यही वजह थी की महात्मा गाँधी तक ने पत्रकारिता की ताक़त को पहचाना तथा नवजीवन , यंग इण्डिया और हरिजन के माध्यम से इक सक्रिय पत्रकार की भूमिका भी निभाई |
परन्तु छि: ! आज जब हम गाँधी जयंती मानाने जा रहे हैं तो मीडिया का यह नया जातिवादी चेहरा उसके प्रति जुगुप्सा और घराना ही पैदा करता है . सिहरन हो उठती है यह सोचकर ही की कैसे कोई पत्रकार इस हद तक जातिवादी हो सकता है ? अगर पत्रकार भी जातिवादी हो जायेगे तो फिर बचा ही क्या यहाँ ? मिशनरी पत्रकारिता तो वैसे भी नाममात्र की ही बची है , वो भी दूध से भरे हुए बर्तन में चिपकी, जली हुई मलाई की तरह .
ऑफिस से निकल कर घर जाने के लिए ऑटो में बैठा ही था की बगल वाली खाली सिट पर इक सज्जन मुस्कराते हुए धम्म से आ बैठे | बातचीत की शुरुवात उन्होंने ही की | दो-चार मिनट इधर-उधर की बातों के बाद प्रसंगवश चर्चा शुरू हो गयी, उसी पखवाड़े में कानपूर में हुए "वैश्य सम्मलेन" में हुयी कथित "गुप्ता पार्टी" की घोषणा पर |
(उल्लेखनीय है कि उक्त सम्मलेन में केंद्रीय कोयला राज्य मंत्री श्री प्रकाश जयसवाल से लेकर नवीन जिंदल, दैनिक जागरण के महेंद्र मोहन समेत देश के तमाम राजनेता-उद्योगपति मंचासीन थे, यानी यह कोई गली-मुहल्लों के चिरकुट नेताओं द्वारा आयोजित ऐरा-गैरा जातीय सम्मलेन नहीं था )
तो खैर इस घोषणा के संम्बंध में मेरे विरोधी विचार जानने के बाद महोदय सिरे से ही उखड गए, कहने लगे- अगर ठाकुर-बाभन जाती के आधार पर पार्टी बनायें तो देश सेवा और अगर दलितों - पिछड़ों ने पार्टी बना ली तो जातिवाद हो गया!!! ( पर वह ये भूल गए कि वैश्य भी ब्राम्हण और ठाकुरों कि तरह सवर्ण ही हैं , दलित या पिछड़े नहीं! ) वे आगे भी चालू रहे और माया-मुलायम-लालू जैसे नेताओं को जातिवादी राजनीती के संदर्भा में सदी के योग्यतम महापुरुषों का दर्जा दे डाला | किन्तु संभवता: उन्हें यह याद नहीं रहा कि योग्य होने और इक आअद्र्श नायक होने में फर्क होता है | अगर योग्यता ही सबकुछ होती तो तो अपने काले इतिहास के लिए जाने जाने वाले मुसोलिनी से लेकर लादेन और अफजल-कासब तक योग्यता में क्या किसी से कम हैं ?
करीब २० मिनट तक चली इस चर्चा में वे जातिवादी राजनीती और माया-मुलायम-लालू के समर्थन में बहुत कुछ कहते रहे, कुतर्क पर कुतर्क पेश करते रहे , पर मेरे तर्कों के सामने उनकी बोलती बंद होती रही | परन्तु इस सबके अंत में उन्होंने जो कुछ भी कहा वह सबसे अधिक भयावह था| और घ्रनास्पद भी |
ऑटो से उतर कर जाते हुए उन्होंने पूछा- कब से हो इस लाइन( पत्रकारिता) में?, १५ दिन ! मैंने बताया, तभी उन्होंने अपना वह अंतिम और भयावह वाक्य बोला - "और मुझे ३२ साल हो गए हैं पत्रकारिता करते हुए !!
सच में उनके इस वाक्य ने इस बार न सिर्फ मेरी बोलती बंद कर दी बल्कि बहुत कुछ सोचने पर भी विवश कर दिया , इक पत्रकार इस हद तक जातिवादी हो सकता है यह तो मैंने कभी सोचा ही नहीं था ,
यह और यह पहली बार नहीं था ,जब अपनी काली स्याही से पत्रकारिता के मुख पर कालिख पोत रहे तथाकथित पत्रकारों ( या कहें जातिवादियों ) से सामना हुआ हो , अपनी 6-७ महीनों कि पत्रकारिता कि छोटी सी अवधि में ही मीडिया में फ़ैल रहे इस जातिवाद को बार-बार देखने व समझने का मौका मिला है , इक बड़े अखबार में तो सिर्फ इस लिए मौका मिल रहा था कि दुर्भाग्यवश मैं इक कुलीन ब्राम्हण परिवार में जन्मा हूँ , दुर्भाग्यवश इसलिए कि इक पत्रकार के रूप में इन सबका सामना करने से अधिक दुर्भाग्यपूर्ण और क्या हो सकता है ?
वैसे भी मीडिया में परिवारवाद और जातिवाद की शिकायतें आम हैं , पता सबको है पर कुछ बोलने की हिम्मत किसी में भी नहीं! आख़िर हम्माम में सब ..... जो हैं |
पत्रकारिता तो मिशन हुआ करती थी उसे आज़ादी के बाद लोतंत्र के इक सजग प्रहरी की भूमिका दी गयीं थी , लोकतंत्र के चौथे स्तम्भा का दर्ज़ा दिया गया था, ताकि वह समाज के विभिन्न तबकों के मध्य सदियों से जनमानस में अपनी जड़ें गहरी कर चुकी रुढियों से समाज को मुक्त कर सके, जिससे इक आदर्श लोकतंत्र का लक्ष्य पूर्ण किया जा सके और ऐसा बिना पत्रकारिता के संभव नहीं था . यही वजह थी की महात्मा गाँधी तक ने पत्रकारिता की ताक़त को पहचाना तथा नवजीवन , यंग इण्डिया और हरिजन के माध्यम से इक सक्रिय पत्रकार की भूमिका भी निभाई |
परन्तु छि: ! आज जब हम गाँधी जयंती मानाने जा रहे हैं तो मीडिया का यह नया जातिवादी चेहरा उसके प्रति जुगुप्सा और घराना ही पैदा करता है . सिहरन हो उठती है यह सोचकर ही की कैसे कोई पत्रकार इस हद तक जातिवादी हो सकता है ? अगर पत्रकार भी जातिवादी हो जायेगे तो फिर बचा ही क्या यहाँ ? मिशनरी पत्रकारिता तो वैसे भी नाममात्र की ही बची है , वो भी दूध से भरे हुए बर्तन में चिपकी, जली हुई मलाई की तरह .
अब यहाँ प्रोफेशनलिज्म हावी है, शायद तभी न तो खबरों के लिए "देह का सौदा" करने में कोई हिचक है न ही "पेड खबरों" के लिए को लेकर कोई शर्म!
और भैया अब तो जिस तरह से यहाँ जातिवाद फलने -फूलने लगा है , ऐसे में तो उन महोदय से निवेदन है की, हे ! जातिवाद के नए ध्वजवाहकों, आओ, सब मिलकर इस पत्रकारिता का बेड़ा गर्क कर दें, इसकी ऐसी- तैसी करने में कोई कोर - कसर न छोड़ें, जितना जल्दी सम्भव हो, पुरे जोशो -खरोश के साथ इस "मिशन" को पूरा कर दो, ताकि हम गांधी, विद्यार्थी और भगत सिन्ह के अधूरे सपनों और मिशन को पूरा करने के लिए हम नवसर्जन की दिशा में अग्रसर हो सकें, क्योंकि नवसर्जन तो हमेशा विनाश के बाद ही होता है न!!!