मन करता है मैं मर जाउं...
इन सब झमेलों से तर जाउं
मन करने से क्या होगा
होगा वही जो भी होगा
मन तो बडा सोचा करता है
रत्ती-भर को ताड सा कर देता है
आदमी तो हरदम वैसा-का-वैसा है
इक-दूसरे को काटता रहता है
हर आदमी का अहंकार है गहरा
और उसमें बुद्धि का है पहरा
बुद्धि हरदम हिसाब करती रहती है
फिर भी पाप और पुण्य नहीं समझती है
ईश्वर-अल्ला-गाड बनाये हैं इसने
फ़िर भी कुछ समझा नहीं है इसने
तरह-तरह की बातें करता रहता है
खुद को खुद ही काटा करता है(तर्क से)
पहले नियम बनाता है आदम
फिर उनको खुद ही काटता है आदम
पता नहीं चाहता क्या है आदम
अपनी तो ऐश भी जरुरत लगती है
दूसरे की भूख भी फालतू लगती है
हर किसी के लिए हैं नये नियम
मगर उनमें कायदा कुछ भी नहीं है
इसलिये कुछ को भले कुछ मिल जाये
इसमें सबका फायदा कुछ भी नहीं है
तेरा-मेरा उसका-इसका
इतना पढ-लिखकर भी
आदम नहीं हो पाया है किसी का
अपने बाल-बच्चों के सिवा
इसको दिखता कुछ भी नहीं है
ऐसी पढाई का फायदा क्या है
समाज में रहने का मतलब क्या है
एक-दूसरे को लूटॊ और पीटो
या कि फिर मारो और काटो
और फिर कहो कि हम सबसे अच्छे हैं
इस कहने का आधार भी क्या है
आदमी के आदमी होने का आधार भी क्या है
अगर इसी तरह सब कुछ चलता रहना है
मन करता है कि मर जाउं....
उफ़ मरकर भी किधर जाउं.....!!!!!