हंगामा है क्यों बरपा...?

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  • Friday, April 23, 2010
  • आजकल आईपीएल पर ही विवाद है. एक केंद्रीय मंत्री कि कुरबानी देनी पड़ी है सरकार को... कोई मजाक बात है. पर पिछले तीन सालों में ये टूर्नामेंट  इसी सरकार को क्यों नहीं दिखा ये आश्चर्य की बात है. लोग मनोरंजन तलाशते हैं और बिना पैसा कमाए कोई किसी का मनोरंजन नहीं करता. तो अगर आईपीएल में पैसों कि बारिश हो रही है तो इसमें गलत क्या है. और रही बात क्रिकेट के व्यवसायीकरण कि तो आपको बता दूँ. कि ये केवल किसी खेल के लिए ही नहीं बल्कि दुनिया की किसी भी कला के लिए अत्यंत आवश्यक है. बिना व्यवसायीकरण के किसी भी कला को किसी भी खेल को दम तोड़ते ज्यादा समय नहीं लगता. आज भारत में क्रिकेट इतना लोकप्रिय है कि सभी देशों के क्रिकेटर भारत के क्रिकेटर्स से इर्ष्या करते हैं. हमारा क्रिकेट बोर्ड किसी भी दुसरे क्रिकेट बोर्ड से ज्यादा शक्तिशाली है. और वो भी कई गुना ज्यादा. और इस सबका कारन ये नहीं है कि क्रिकेट हमारे खून में है या हमारी परंपरा में है या हमारा धर्मं है. बल्कि इसलिए कि क्रिकेट का इतना व्यवसायीकरण हुआ है. हमारे यहाँ दुसरे खेलों के साथ ऐसा नहीं हुआ उन्हें वो ग्लैमर वो फेम नहीं मिला वो ब्रांडिंग नहीं हुई. इसलिए कोई भी खेल इतना लोकप्रिय भी नहीं हुआ. लोग उस तरफ जाते हैं जहा आशा होती है. जहा पैसा होता है. जहा लोकप्रियता होती है. और ये सब बिना व्यवसायीकरण के नामुमकिन है. इसलिए कोई और खेल भारत में क्रिकेट का मुकाबला नहीं कर पता. बीते दिनों बोक्सर विजेंद्र कुमार का बयान आया था कि अगर बोक्सिंग में भी आईपीएल जैसा कोई टूर्नामेंट हो तो इससे बोक्सिंग का काफी भला हो सकता है. विदेशो में बोक्सिंग क्लब्स होते हैं क्लब फाइटिंग में खूब सट्टेबाजी भी होती है. पर इस सबकी वज़ह से बोक्सिंग में ग्लैमर है. लोग बोक्सेर बनना चाहते हैं. मै खुद यही मानता हूँ कि अगर बाकि खेलों का भी व्यवसायीकरण किया जाये तो उन्हें भी आगे लाया जा सकता है. पर ये कैसे होगा ये कम हमारी सरकार तो करने से रही. फिर उद्योगपतियों के अलावा ये कर कौन सकता है. अब रही बात काले धन कि तो हमारे यहाँ तो फ़िल्में भी अंडरवर्ड के पैसे से बनती हैं. काले धन को सफ़ेद करने का एकमात्र तरीका आईपीएल ही नहीं है. तरीका ये नहीं है कि हम आईपीएल बंद कर दें. तरीका ये है कि सरकार ध्यान दे कि काले धन का पता लगाया जाये चाहे वो क्रिकेट में लगे, फिल्मो में लगे या कही और. रही बात चिअर लीडर्स की तो  मै मानता हूँ कि हमें बाल ठाकरे कि तरह सोचना बंद करना चाहिए. चिअरलीडर्स सिर्फ भारत में नहीं होती. विदेशों में १०० साल हो गए हैं चेअरलीडिंग को शुरू हुए. और हम अभी भी इतना परहेज़ कर रहे हैं. सविताभाभी जैसी साईट धड़ल्ले से देखि जाती है. ऍम ऍम एस सब तरफ फैले हुए हैं. फिल्में ऐसी बन रही हैं कि परिवार के साथ देखना मुश्किल है. और चिअर लीडर्स हमारी परंपरा को भ्रष्ट  किये डाल रही हैं.
    हाँ, ये ज़रूर मानता हूँ कि इस लीग में विदेशी खिलाडियों को ना शामिल करके भारतीय खिलाडियों को ही मौका दिया जाये तो वाकई ये टूर्नामेंट मनोरन्जन से बढकर साबित हो. अब जब हम इतने सक्षम हैं कि भारतीय खिलाडियों को अपना टैलेंट दिखने का मौका दे सकते हैं तो ऐसे में बाहरी खिलाडियों को मौका देना वाकई काबिले ताज्जुब है. अगर ऐसा हो सके तो ऐसे बहुत से क्रिकेटर्स अपने टैलेंट को लोगों के सामने ला पाएंगे जो कभी अंतर्राष्ट्रीय टीम में जगह नहीं बना पाते. फिर क्रिकेट में पूरे भारत में सिर्फ ११ लोगों के लिए ही स्कोप नहीं होगा. बल्कि ११० से ज्यादा खिलाडी अपने टैलेंट को देश के सामने ला पाएंगे.
    पर दुःख है कि व्यावसायिकता के भी अपने दोष हैं. पूंजीवाद में या तो आपके पास सब कुछ होता है या फिर कुछ नहीं. यही व्यवसायीकरण कि भी सच्चाई है. फिर भी आशा करता हूँ कि कोई रास्ता निकलेगा और क्रिकेट को अपनी लाइफ समर्पित कर चुके युवाओं को भी एक मौका मिलेगा अपने सपनों को पूरा करना का.                   --- असीम त्रिवेदी 



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