किसी से कुछ कहना ही क्या है !!
किसी ने किसी से कुछ कहा और झगडा शुरू,
तो फिर कहना ही क्यूं है,किस बात को कहना है-
कहने में जो अर्थ हैं,गर उनमें ऐसी ही अशांति है,
तो फिर कहना ही क्यूं है,किस बात को कहना है-
कहने में जो आसानी हुआ करती थी कि-
कुछ चीज़ों-लोगों-जीवों-स्थानों के नाम जाने जा सकते थे,
नाम उनकी शक्ल की पह्चान करा देते थे;
बता दिया जाता था अपना हाल-चाल और
दूसरे का हाल भी जाना जा सकता था कुछ कहकर;
कुछ कहने का अर्थ बस इतना-सा ही हुआ करता था कि-
एक-दूसरे को किसी भी प्रकार के खतरे से
आगाह किया जा सकता था और
एक-दूसरे से प्यार भी किया जा सकता था कभी-कभी !!
कुछ कहने से एक सामाजिकता झलकती थी और
एक प्रकार के कुटुम्ब-पने का अहसास हुआ करता था !!
किसी एक के कुछ कहने से यह भी पता चल जाता था कि-
तमाम आदमी दर-असल एक ही इकाई हैं और
देर-अबेर यह धरती की अन्य तमाम प्रजातियों को-
अपनी ही इकाई में समाहित कर लेगा;
अपने-आप में छिपे विवेकशीलता के गुण के कारण !!
मगर इस देर-अबेर के आने से पहले ही-
कु्छ कहना बुद्धि हो गयी और
बुद्धि का समुच्चय एक ज्ञान और संचित ज्ञान-
एक भारी-भरकम एवम एक ठोस अहंकार-
एक ठ्सक-एक तरेर-एक ठनक इस बात की कि-
मैं यह जानता हूं,जो तू नहीं जानता ;
….…कुछ कहने का मतलब तो तब होता था जब
हम यह कहते थे कि यह हम जानते हैं मगर
अकेले हम ही जान कर करेंगे भी क्या-
ये ले,इसे तू भी जान ले;और इस तरह
श्रुतियों के द्वारा ज्ञान बंटा करता था सबके बीच
और बंटता ही चला जाता था और जनों के बीच
सब लोगों के ही बीच्…
अब तो बडी मुश्किल-सी हुई जाती है
अब तो हम यह कह्ते हैं कि
यह मैं ही जानता हूं सिर्फ़ और मैं नहीं चाहता कि-
कहीं गलती से तू भी इसे जान ना ले;
कहीं तू ही मुझसे आगे नहीं बढ जाये
मुझसे कुछ ज्यादा जानकर
असल में मैंने तुझे गिराकर आगे बढ्ना है
……अगर जानना ऐसी ही घिनौनी चीज़ है,
तो फ़िर थू है ऐसे जानने पर
फ़िर झगड़ा होना ही ठहरा;क्योंकि
कहने में सादगी और सरलता ही कहां भला
दर्प है,अहंकार है,तनाव है और बेवजह का झगड़ा !!
अलबत्ता तो कोई किसी से कुछ कहता ही नहीं सीधी तरह
और जो किसी ने किसी से कुछ कहा तो झगड़ा शुरू
तो फ़िर कहना ही क्या है,
किस बात को कहना है आखिर…….…!!